अघोरेश्वर-बुद्ध और गुरू-चेला

पूज्य अघोरेश्वर के इस स्वर्णिम सूत्र की अपनी छोटी बुद्धि से विवेचना करने हेत बुद्ध के जीवन की कथा से आरम्भ करता हूँ,जिसे मैंने एक किताब में पढ़ा था। बुद्ध अर्थात राजकुमार सिद्धार्थ, आचार्य आलार कालाम से आरंभिक ध्यान और साधना की दीक्षा प्राप्त करने के बाद, अपनी यात्रा में आगे बढे।आचार्य आलार कलाम ने उन्हें तीन बातें कही, पहली बात….”असीम आकाश और असीम चेतना” में प्रवेश करो ! दूसरी बात….”न भाव बोध ना भाव बोधहीनता” ! तृतीय बात….”अपदार्थ्ता की अवस्था प्राप्त करो” ! इसके पूर्व आचार्य श्री उद्रक रामपुतत ने भी उन्हें “अकिंचन पायतन” नाम की एक अरूप समाधी के लिए कहा था, जो निर्विचार अवस्था है। परन्तु सिद्धार्थ गौतम को यह महसूस हो गया था, कि यह भी अंत नहीं है, बार बार झलक दिखती है।

अपने बुद्धत्व की प्राप्ति की पूर्व संध्या में सिद्धार्थ बहुत कमज़ोर हो चुके थे, कपडे तार-तार थे ! उन्होंने शमशान में एक स्त्री के शव पर रखे कपडे को धारण किया, और पेड़ के नीचे बैठ गए…. बस अब कुछ नहीं करना, कोई इच्छा नहीं ! सुजाता ने खीर दी जो उनका रात्रि भोजन हुआ, और गौतम सो गए। जब प्रातः वो जागे तो भोर का तारा दिख रहा था, और उसे ही देखते देखते….गौतम बुद्धत्व को प्राप्त हो गए। एक असीम आनंद से गौतम भर गए।

कथा कहती है,सुजाता ने जब उन्हें देखा तो कहा….हे सन्यासी ! आज तुम्हारे चेहरे पर ज्ञान का अपूर्व तेज दिख रहा है। उसने कहा कि “मागधी बोली में ज्ञान को बुध कहते है, तो ग्यानी को बुद्ध कहना चाहिए” ! गौतम ने यह संबोधन स्वीकार कर लिया।

अब अपनी बात पर लौटूं….गौतम बुद्ध के भीतर जब बुद्धत्व प्रकट हुआ, तो वो एक बात से बड़े विस्मित हुए अचंभित हुए । उन्होंने कहा ” समस्त जड़ चेतन पशु प्राणियों के अंतर में बुद्धत्व के बीज पड़े हुए है, फिर भी हजारो जन्मों से यह चक्र समाप्त नहीं हुआ”। गौतम ने देखा, उनके भीतर ही नहीं बल्कि सृष्टि के कण-कण में ….जड़, चेतन, पशु-पक्षी, पेड़,मनुष्य…सभी में बुद्धत्व प्रकट हो गया है।

सात दिनों तक मौन रहकर बुद्ध यह अनुभव करते आनंद की अवस्था में रहे। उससे भी बड़ा अचम्भा, उन्हें तब हुआ जब देवताओं ने अर्थात उच्च चेतनाओं ने उन्हें कहा “मौन कब तक रहेंगे, कुछ बोलिए संसार का मार्गदर्शन करिए” ! बुद्ध बड़े अचंभित हुए….किसे मार्गदर्शन देना है, किसे ज्ञान देना है ? यहाँ तो सभी बुद्धत्व को उपलब्ध है। जो मैं हूँ, वही सब है, और जो सब है, वही मैं हूँ ! पर देवताओं के बार-बार निवेदन करने पर बुद्ध ने अपने भीतर करूणा को प्रकट होते देखा।

करूणा के वशीभूत बुद्ध ने देखा तो पाया, क़ि जो मैं कह रहा हूँ, वो तो सत्य है ! मैं जानता हूँ, क़ि हर कोई बुद्ध है, पर मूर्च्छा में पड़े है ! वो नहीं जानते कि वो बुद्ध हैं ! उनके भीतर भी बुद्धत्व का बीज है ! उनके अन्दर बीज है , अर्थात वृक्ष हो जाने की पूरी सम्भावना विद्यमान हैं।अड़चन की बात ! बस खबर देनी है, उन लोगो को उनके बुद्धत्व की, पर….लोग अपने बुद्धत्व की खबर का मखौल उड़ायेंगे, मसखरी समझेंगे ! पर बुद्ध ने अपने बुद्धत्व की ख़बर दी, स्वीकार किया लोगो ने। बुद्ध की यात्रा आरम्भ हो गयी। अपने प्रथम सम्भोधन में बुद्ध ने एक चरवाहे , सुजाता और कुछ बच्चों को ज्ञान दिया। तत्पश्चात वो ढूँढने निकले उन पांच शिष्यों को जो उनकी विकट साधना और उसके बाद स्त्री सुजाता द्वारा भोजन लेने पर, उन्हें छोड़कर चले गए थे। उन्हें लगा था कि गौतम पथभ्रष्ट हो गए हैं।

बुद्ध के लिए शिष्य बनाने का कोई प्रश्न ही नहीं था ! किसे सिखायेंगे ? पर उन्होंने जो पाया उसे बांटने के लिए और जिन्हें ज्ञान पाना है , उन लोगो को सीखने की दृष्टि से स्वयं को शिष्य कहना उचित है,। बुद्ध के लिए मुश्किल की बात है, क्या कहना और किसे कहना ? क्योंकि जिन्हें कहना है उनके भीतर भी बुद्धत्व ही देखा था गौतम ने, परमात्मा का दर्शन किया था। वो उनके भीतर भी उसी परम ज्योति का दर्शन कर पा रहे थे जिसका उन लोगो को भान नहीं था ‌‌‍|

कबीर ने भी इस बात को अपने तरीके से कहा और इस बात की पुष्टि की।

” ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग
तेरा साईं तुझमें ही है, गर जाग सके तो जाग ”

अतः जब पूज्य अघोरेश्वर कहते हैं…”गुरु, गुरु बनाता है चेला नहीं”….तो….लोग आश्चर्य से भर जाते हैं।बहुत बड़ी हिम्मत भरा सूत्र है, क्योंकि सदियों से परंपरा रही है गुरु-शिष्य की और यह सूत्र विपरीत है उस परंपरा के। सत्य हमेशा से रूढ़ियों और परम्पराओं पे चोट करता रहा है।

भारतवर्ष में सैकड़ों पंथ है, हज़ारों सतगुरु ,गुरु, सिद्ध गुरु ! जाने क्या क्या हैं ! उनके लाखों शिष्य हैं। ऐसे में अघोरेश्वर का यह कहना कि….”मैं गुरु बनाता हूँ चेला नहीं” ! साथ ही, वो, सावधान कर रहे हैं कि “गुरु गुरु ही बनाएगा” ! यहाँ सोना बनाने का सवाल नहीं ! यहाँ तो पारस बनता है जो अपने करीब आने वाले लोहे को परिवर्तित कर दे। रूपांतरण की शक्ति जब तक पैदा ना हो तो किस बात का बुद्धत्व ! यह सूत्र उन सारे तथाकथित गुरुओं के विरोध में था जो पाप-पुण्य स्वर्ग-नरक के जाल में लोगो को उलझा कर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। बुद्ध ने कहा किसे ज्ञान दूँ , किसे सिखाऊं ? यहाँ तो सब बुद्ध हैं। अघोरेश्वर भी यही कह रहे हैं ! बुद्धपुरूष, बुद्धपुरूष का ही निर्माण करेंगे ! शेर से शेर ही जन्म लेगा वहां मेमने की कल्पना मत करिए। गुरु शिष्य नहीं बनाता, वो उस आवरण को उतार फेंकता है, जो तुम्हारी गुरुता को तुम्हारे स्वरुप को तुम्हारे बुद्धत्व को ढांके हुए है। अघोरेश्वर जैसे बुद्ध पुरुष ही यह कह सकते हैं, कि, तुम मुझसे भिन्न नहीं हो।

एक छोटी सी कथा से समझाने का प्रयास करता हूँ ! दो मित्र रात में सोने जाते हैं ! सुबह जल्दी उठकर उन्हें भोर के सूर्य का दर्शन करना है। वो दोनों महा-आलसी थे ! उनमें से किसी एक ने सुन रखा था कि  सुबह का सूर्य बड़ा सुन्दर दीखता है और उसको देखा जा सकता है , अगर सुबह जल्दी जाग जाए तो। दोनों मित्रो में तय होता है कि जो पहले जागेगा वो दुसरे को जगा देगा। एक मित्र उठता है और सूर्य को देखता है और दुसरे के पास आता है ! उसको सोता देखकर वो हंसने लगता है। बस ऐसा ही कुछ होता है अज्ञात की राह में, जो देख लेता है वो लौट कर आता है और संसार को देख कर हंसने लगता है, कि मैं अब तक यहाँ था। क्या कहेंगे इसे, एक जाग गया और देख लिया ! अब जो जागा हुआ है वो सोये हुए को जगायेगा, पर इसके लिए भी जागने की इच्छा तो हो ! कुछ तो सोये हैं उन्हें जगा लेंगे पर कुछ जो सोने का नाटक कर रहे हैं उनको जगाना मुश्किल है ! जागने के लिए नींद में होना जरुरी है, नींद का अभिनय करने वालो के नसीब में जागना कहाँ ! और कुछ तो दो कदम आगे हैं, वो सोने का नहीं जागने का अभिनय करते हैं और इतना सटीक अभिनय के आप विस्मित हो जायेंगे ! तो….बात सिर्फ इतनी है कि एक सोया हुआ है एक जागा हुआ है ! सोये हुए में संभावना है जागने की, वो भी जागेगा जब उसे कोई बतायेगा कि, मैंने देखा है तुम भी देख सकते हो।

पूज्य अघोरेश्वर कह रहे हैं, तुम मुझसे भिन्न नहीं हो ! सतगुरु वही है जो शिष्य को अपना ही अंग समझता है, अपना ही रत्न समझता है। अघोरेश्वर कहते हैं….”मैं परमात्मा हूँ, तो तुम भी परमात्मा हो। फ़र्क इतना है कि मैं जाग गया….जान गया, अपने बुद्धत्व को….अपने स्वरुप को….और, तुम अभी जागे नहीं हो नींद में हो। जागने के बाद बुद्धत्व रुपी सूर्य को देखने के बाद बुद्ध पुरुष भी वैसे ही हँसते हैं जैसे वो जागा हुआ मित्र अपने सोये हुए मित्र को देख कर हंसता है।

पूज्य अघोरेश्वर कह रहे हैं, मैं जाग गया तो जान गया, तुम अभी सो रहे हो, तुम जब जागोगे तो तुम भी जान जाओगे। नींद में होने से कोई पात्रता में कमी नहीं आ गयी बल्कि नींद में होना तो संभावना है जागने की। फर्क सिर्फ इतना है, कि एक जागा हुआ बुद्ध है और एक सोया हुआ बुद्ध है। दोनों की भगवत्ता में सिर्फ इतना ही अंतर है। इसीलिए मालिक ने कहा गुरु थोड़ा पहले सीखता है, शिष्य थोड़ा बाद में।

एक पुरानी कथा है, बड़ी ही अर्थपूर्ण है, एक शेर का बच्चा अपने झुण्ड से बिछड़ कर हिरनों के झुण्ड से जा मिला। हिरनों ने ही उसका पालन-पोषण किया ! उनके साथ ही रहकर वो जवान हुआ ! उसके हाव भाव, रहन सहन, खान पान यहाँ तक कि उसका व्यवहार भी उनके जैसा हो गया, उस शेर का आचरण भी हिरनों की तरह हो गया था। एक दिन हिरनों के झुण्ड का सामना शेरों के एक झुण्ड से हो गया ! सारे हिरन भय के मारे भाग गए , युवा शेर जो था वो एक कोने में दुबक गया, वो मारे भय के काँप रहा था ! अब शेरों को बड़ा अजीब लगा कि यह हमें देख कर डर रहा है ? उसको समझाने का बहुत प्रयास हुआ पर वो माने ही नहीं ! आखिर झुण्ड के एक बूढ़े शेर ने उसे बुलाकर पानी में उसका प्रतिबिम्ब दिखाया, तब उस युवा शेर को अपने निज-स्वरुप का एहसास हुआ। हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही है।

अघोरेश्वर कह रहे हैं, गुरु गुरु बनाता है ! जो जागा हुआ है वही तुम्हें जगायेगा ! जो सोया पड़ा है अगर वो तुम्हे आश्वासन भी दे तो व्यर्थ है। अघोरेश्वर महाप्रभु जैसे बुद्धपुरुष ही यह घोषणा कर सकते हैं, कि “मैं ही परमात्मा हूँ” ! बिना संकोच कह देते हैं, पर….दुसरे ही क्षण दूसरी घोषणा करते हैं….”तुम सब परमात्मा हो ” ! अहंकार रहित चित्त से ही ऐसी घोषणा संभव होती है।

निजता या प्रभुता दो ही चीज़े हैं आध्यात्म में ! निजता ध्यान का और भक्ति का ध्येय है !और दोनों ही चीज़े अहंकार रहित चित्त से अनुभव में आती है। अहंकार रहित चित्त ही ध्यान का ध्येय है। जागे हुए लोगों को सिर्फ एक ही चीज़ दिखती है “या तो वो या तो मैं” ! कहीं दो नहीं कभी दो नहीं ! जब दिखेगा एक ही दिखेगा।

अहंकार को जीने के लिए स्वयं के अतिरिक्त एक और सत्ता की आवश्यकता होती है, जिसके समक्ष बोला जा सके जिसे दिखाया जा सके, अपनी प्रभुता। पर यहाँ तो सब प्रभु हैं, फिर कैसी प्रभुता किसकी प्रभुता किसपे प्रभुता ? बहुत हिम्मत चाहिए, इस संसार में ऐसा कहने के लिए ! सत्य को संसार पचा नहीं सकता।

अघोरेश्वर सहजता से कह देते हैं, हम शिष्य नहीं बनाते हम तो गुरु बनाते हैं, हम वो पारस नहीं जो लोहे को सोना कर दें, हम तो वो हैं जो लोहे को पारस कर दे। अघोरेश्वर ही कह सकते हैं ऐसा….निरहंकारी और करूणा सहित वाक्य। जागा हुआ बुद्ध सोये हुए बुद्ध को जगा रहा है। सिर्फ इतना ही उपक्रम करना होता है।

पर यहाँ तो सोये हुए लोग, बल्कि, मूर्छित लोग….बड़े बड़े मंचो से आपको जगाने का काम कर रहे हैं। जो खुद सोये हैं वो ही अहंकार से भरे हुए हैं ! इन्ही अहंकारी लोगो ने भगवान् का जाल खड़ा किया है ! आस्तिक अहंकार से भरा होता है, धार्मिक निरहंकारी होता है। नास्तिक में भी अहंकार नहीं होता, बेचारा किसका नाम लेकर अहंकार करे ! आप और तथाकथित संत, भगवान् की आड़ में अपने अहंकार को पुष्ट कर रहे हैं। निरहंकारी चित्त ही….भगवत्ता और भगवान् का दर्शन और अनुभव कर सकता है।

ॐ श्री अघोरेश्वराय नमः
।।एक अखंड कीनाराम,माँ गुरु अघोरेश्वर भगवान राम।।

 

कमल शर्मा

रायपुर, छत्तीसगढ़

 

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