मनुष्य शरीरधारी गुरु ईश्वर का स्वरूप है जो प्रकृति का सब कुछ संचालन करता है। गुरु के संबध में परम् पूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु ने कहा है “मनुष्य प्राणी में ।जो विवेक है वही विवेक गुरु का स्वरूप है। उसी विवेक में,गुरु का सभी गुणधर्म विराजमान है यह आवश्यक नहीं है कि गुरु सदा शरीर में रहे” । शरीर पाँच तत्व से बना होता है- पृथ्वी, जल, वायु, आकाश व् अग्नि का होता है । मनुष्य प्राणी में जो विवेक है उसका संकेत उस व्यक्ति द्वारा समझा जा सकता है, जिस व्यक्ति की आत्मा विकसित हो, जो गुरु का सुपात्र होता है । ऐसे व्यक्ति के पास पराशक्ति का ठहराव एवं निवास स्थान होता है।
कलियुग में मनुष्य विज्ञान के विभिन्न प्रकार के अविष्कारों से प्रभावित है। जिन अविष्कारों के कारण सदा शारीरिक सुख में लिप्त रहना चाहता है । ऐसे युग में विवेक का विज्ञान रूपी शक्ति के दबाव में आ जाना स्वाभाविक है। विज्ञान को उस पराशक्ति का रूप ही माना जाता है। आत्मिक विकास के लिए सत्संग तथा गुरु-शरण की आवश्यकता होती है ।
सत्संग संतो की वाणीयों को सुनकर, उसे पढ़कर एवं संतो के आचरण का अनुकरण कर किया जा सकता है। पूर्ण रूपेण विकसित आत्मा रूपी सदगुरु के प्रति समर्पित व्यक्ति ही समाज के लिए उपयोगी काम कर सकता है। शास्त्र,पुराणों में आश्रम की जो अवधारणा है वह वर्तमान युग में काफी महत्वपूर्ण है। आश्रम को सभी प्राणियों का आश्रय स्थल कहा जाता है। ऊँच-नीच, भाषा-भाषी, विभिन्न भौगोलिक भू-भाग में रहने वाले किसी भी मनुष्य प्राणी के लिए यह आश्रय स्थल है। आश्रम का वातावरण प्राकृतिक होता है जिसमें समस्त प्राणी, वनस्पति, लता आदि अपनी अपनी प्रकृति में रहकर उस पराप्रकृति के अनुरूप हो जाते हैं । आश्रम इन्हीं सबका आश्रय स्थल है ।
भारतीयों की सबसे बड़ी पहचान है व्यवहार-कुशलता। हम सबको व्यवहार कुशल होना चाहिये।
व्यवहार-कुशलता समाजिक सफलता की सबसे बड़ी उपलब्धि है। व्यक्ति थोड़े दिन के लिए ही इस पृथ्वी पर आया हुआ है। यह थोड़ा दिन भी गुमराही में व्यतीत किया जाय तो अच्छी बात नहीं। हम सबको ऐसा जीवन व्यतीत करना है, जिस जीवन से सैकड़ो-हजारों का कल्याण हो, तभी हमारा जीवन सफल समझा जायेगा। पुराने लोग भी कथा एवं सत्संग, ईश्वर में दिलचस्पी रखते थे। ऐसा करने से जीवन में साहस और भक्ति आती है।
इस भौतिक जीवन में उन्नति आवश्यक है।
लेकिन उन्नति का आधार स्पष्ट और कल्याणकारी होना चाहिये। अनैतिकता का सहारा लेकर की हुई उन्नति, उन्नति नहीं अवनति है। अनैतिकता के मध्य किया गया कार्य भय की ओर ले जाता है। यदि व्यक्ति कोई गलत कार्य करके सफलता प्राप्त कर भी ले तो यह सफलता हृदय को संतोष नहीं देगी। हर व्यक्ति को कोशिश करनी चाहिये कि वह अपनी प्रगति करे। इस प्रगति का आधार सच्चाई और ईमानदारी हो। इसी को ईश्वरीय गुण कहा जाता है। ईश्वरीय गुण श्रेष्ठ समाजिक गुण है।
प्रस्तुति
औघड़ बाबा राजेश राम जी
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