5 अगस्त 2019 को भारत वर्ष के जम्मू-कश्मीर राज्य से धारा 370 हटा ली गयी और राज्य-विशेष का दर्ज़ा ख़त्म कर दिया गया । “विशेष संविधान के तहत विशेष अधिकार” देने की बजाय, “एक संविधान सबको अधिकार” का क़ानून लागू कर दिया गया । पाकिस्तान द्वारा पोषित जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेता दंगे-फ़साद करवाते उसके पहले ही उन्हें उनकी जगह, जेल, दिखा दी गयी । इसके बाद अशांति फ़ैलाने का ज़िम्मा लिया सूबे के तीन ताक़तवर नेताओं- महबूबा मुफ़्ती और फ़ारूख़ व् उमर अब्दुल्ला – ने । केंद्र सरकार ने सख़्ती दिखाते हुए उन्हें भी नज़रबंद सरीख़ा कर दिया । यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि मुफ़्ती और अब्दुल्ला परिवार , जम्मू-कश्मीर के, दो ऐसे परिवार रहे जो, कॉंग्रेस की तर्ज़ पर, दशकों से राज्य पर हुकूमत करते रहे, मौज करते रहे और ज़रा भी सत्ता की मलाई चाटने से दूरी बनते देख देश-विरोधी हरक़तों की रहनुमाई करते रहे । पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों और पत्थरबाजों का नैतिक समर्थन कर, ये दो परिवार, सत्ता का सुख भोगते रहे और सूबे की अवाम को उल्लू बनाते रहे ।
जम्मू-कश्मीर को अपनी निजी जागीर समझने वाले इन परिवारों और अलगाववादी नेताओं ने, अलगाववादी आंदोलन के नाम पर, करोड़ों-अरबों की जायज़ाद इकट्ठा कर लिया । अपने बच्चों को तो सुरक्षा कवच पहनाते हुए उच्च-शिक्षा के लिए विदेश भेज दिया लेकिन गरीबों के बच्चों को ज़िहादी और पत्थरबाज़ बनाकर मरने के लिए तैयार कर लिया । इन पाक समर्थित ‘देशद्रोहियों’ ने दशकों से केंद्र-सरकार को डराकर कर रखा था कि …. “धारा 370 से कोई छेड़-छाड़ हुई तो राज्य जल उठेगा, तबाही मच जाएगी, विनाश हो जाएगा ….. ” अगैरह-वगैरह । पहले की केंद्र सरकारें डरी-सहमी रहीं और इन अलगाववादी और देशद्रोहियों नेताओं को ‘दामाद’ जैसी इज़्ज़त देती रहीं ।लेकिन केंद्र की वर्तमान मोदी सरकार ने अलगाववादियों तथा देशद्रोही नेताओं को सबक़ सिखाते हुए ये सन्देश दे दिया कि जम्मू-कश्मीर के नाम पर डरा-धमका कर ‘दामादगिरि’ जारी रखने का सिलसिला अब नहीं चलेगा । इन्हें जेल में डाल दिया गया । जेल में जाते और सख़्ती होते ही इन अलगाववादी और देशद्रोहियों नेताओं के साथ-साथ पुश्तैनी ‘व्यापारी’ मुफ़्ती-अब्दुल्ला परिवार को समझ में आ गया कि अब दाल नहीं गलने वाली । बाद में कॉंग्रेस ने भी इन घाघ और राष्ट्र-विरोधी नेताओं की कूटनीतिक तरीक़े से हौसलाफज़ाई करने की कोशिश की मग़र देश के मूड को देखते हुए अपने पैर वापिस खींच लिए ।
ये तो था , वो सीन जिसे सबने देखा और समझा । लेकिन सबसे ज़्यादा ‘घायल’ हुआ, दशकों से कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने का सपना पाले, पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान । कश्मीर मामले पर पाकिस्तान का हौसला बढ़ाने वाले कांग्रेस के ‘सपूत’ राहुल गांधी के बयानों के ज़रिये पाक वज़ीरे आज़म, इमरान खान, हर जगह कश्मीरियों के अधिकार का रोना रोते रहे मग़र सुनवाई के नाम पर मामला सिफ़र रहा । अंतराष्ट्रीय-स्तर पर अमेरिका सहित हर देश ने पाकिस्तान की घाघ और दोगली नीति को झिटक दिया । हर मुमक़िन कोशिश की इस आतंकवादियों के आक़ा देश आतंकिस्तान ने , लेकिन सफ़ल नहीं हुआ । थक-हार कर अब आतंकिस्तान (पाकिस्तान) के प्रधानमंत्री, इमरान खान, “मुसलमान-मुसलमान” का राग अलाप रहे हैं । मुस्लिम कार्ड ही, अब, इमरान की एकमात्र उम्मीद है ।
इमरान खान को डर है कि अब POK (पाक अधिकृत कश्मीर) भी हाथ से न निकल जाय । इमरान, हर मुस्लिम देश से, मदद मांग रहे हैं । मुस्लिम देशों के लीडर मुल्क़ सऊदी अरब की यात्रा कर चुके हैं , इस्लामिक आतांकवादियों को हर मुमक़िन मदद दे रहे हैं । पाक़िस्तानी हुक़्मरान, इस्लामिक ज़ेहाद को, उकसा रहे हैं , इस उम्मीद में कि क़ौम के नाम पर इस्लामिक ज़ेहाद के ज़रिये उन्हें भारत का कश्मीर मिल जाएगा या POK बच जाएगा । तुर्की सहित कुछ अन्य देशों से उन्हें धर्म के नाम पर कुछ कूटनीतिक सहानभूति मिली भी है , लेकिन इमरान खान (जम्मू-कश्मीर में) ज़ेहाद और आतंक से कम कुछ मंज़ूर करने के मूड में नहीं दिखते । इमरान खान इस मनोविज्ञान का फ़ायदा उठाने की फ़िराक़ में हैं कि क़ौम के नाम पर बेहद संवेदनशील मुस्लिम क़ौम को, कश्मीर के नाम पर, अपने साथ कर लिया जाए । ज़्यादातर भारतीय मुसलमानों की चुप्पी से इमरान की उम्मीदें परवान चढ़ी हैं ।
बार-बार मुस्लिम-कार्ड का इस्तेमाल करने बावज़ूद ज़्यादातर भारतीय मुसलमानों की चुप्पी को, इमरान खान, पाकिस्तान के समर्थन में मान रहे हैं । इमरान का ये क़यास किस हद तक़ सही है , ये कहना फ़िलहाल मुश्क़िल है , लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि भारत का मुसलमान खुल कर इमरान खान की ज़िहादी मानसिकता के ख़िलाफ़ नहीं आया है । हिन्दुस्तान की सड़कों पर भारतीय मुसलमान “इमरान खान मुर्दाबाद या पाक़िस्तान मुर्दाबाद” कहता नज़र नहीं आया है । हिन्दुस्तान में मुस्लिम-सगठनों द्वारा छुट-पुट पाक-विरोधी प्रदर्शन भी इमरान को बहुत निराश नहीं किये हैं । कश्मीर मामले पर बहुसंख्यक भारतीय मुसलामानों की चुप्पी, इमरान के जज़्बे में इज़ाफ़ा करने में सफ़ल रही है । इमरान को लगने लगा है कि मुस्लिम क़ौम की थोड़ी सी भी नकारात्मक बात या तौहीन होने पर हज़ारों-लाखों की संख्या सड़कों पर आ जाने वाला भारतीय मुसलमान, अब तक, हज़ारों-लाखों की संख्या में, उनकी ‘इस्लामिक ज़िहाद मानसिकता’ के ख़िलाफ़ सड़कों पर नहीं आया है । इमरान की खुशी इस बात को लेकर भी है कि कश्मीर मामले पर ख़ुलकर मुस्लिम क़ौम का राग अलापने वाले पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारतीय मुस्लिम आक्रामक नहीं है । भारतीय मुसलमानों के एक बड़े तबक़े की चुप्पी पाक़िस्तान के लिए उम्मीद की किरण है । कश्मीर मामले पर, लग़ातार, मुस्लिम क़ौम की रहनुमाई का दम भरने वाले पाक प्रधानमंत्री ये ख़याली पुलाव पका रहे हैं कि क़ौम के नाम पर ज़्यादातर भारतीय मुसलमान उनके साथ है । इमरान खान ये भी गणित लगा रहे हैं कि कश्मीर मुद्दे पर भारतीय मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबक़ा, पाक़िस्तान के क़ौमी-ज़िहाद की वक़ालत का, विरोध नहीं कर रहा तो इसका मतलब वो पाक़िस्तान की ‘क़ौमी एकता’ आवाज़ का समर्थन करता है ।
किसी भी देश का नागरिक हर मुद्दे पर खुल कर सड़कों पर नहीं आता, लेकिन, छोटी-छोटी बातों पर भी क़ौमी एकता का प्रदर्शन करने वालों से ये उम्मीद की जाती है कि पूरे देश में, ग़र , आप मोदी-विरोध के नाम पर एकजुटता का प्रदर्शन कर सकते हैं तो पाक-विरोध क्यों नहीं कर सकते ? क्यों क़ौम-एकता के नाम पर हिन्दुस्तान को तबाह करने का मंसूबा पाले इमरान खान और पाकिस्तान का पुरज़ोर विरोध करते नहीं दिखाई देते हैं । एक्का-दुक्का लोग बोल रहे हैं पर ये संख्या मोदी-विरोध करने वाले लोगों की संख्या का 10 वां हिस्सा भी नहीं है । यानि देश के प्रधानमंत्री का विरोध करने के लिए पूरी एकजुटता और भारत को आतंकवादी हमलों से हिलाने का मंसूबा पाले पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सिर्फ़ 10% की संख्या ?? ये कुछेक ऐसे सवाल हैं, जिसका जवाब ख़ुद मुस्लिम क़ौम को ही देना है, इमरान खान के ख़िलाफ़ । क्योंकि इमरान खान लगातार ‘मुस्लिम-मुस्लिम’ का राग अलाप रहे हैं ?
पाकिस्तान के ख़िलाफ़ नरमी से एक सवाल बड़ी तेज़ी से पाँव पसार रहा है कि भारत में 90 फ़ीसदी मुसलमान , मोदी-विरोध को जायज़ क़रार देते हुए एकजुट क्यों हो जाते हैं ? आखिर वो कौन सी ऐसी चीज़ है जो मोदी के ख़िलाफ़ तो करोड़ों मुसलामानों को एक कर देती है लेकिन इमरान खान के ख़िलाफ़ 10 फीसदी को भी एक नहीं कर पाती ? शायद, इसका जवाब है – ‘क़ौमी एकता’ । भारत में 90 फ़ीसदी मुसलमान , भाजपा को वोट न देने के मामले में एकजुट क्यों हो जाते हैं ? इसका जवाब फ़िर से वही है – ‘क़ौमी एकता’ । मग़र यहां एक बड़ा सवाल उभर कर आता है कि देश बड़ा या क़ौमी एकता ?? क्योंकि 1984 में , कांग्रेस के शासनकाल में, कई कॉंग्रेसी नेताओं की छत्रछाया में पूरे देश में कई हज़ार सिख मारे गए , लेकिन सिख क़ौम ने कभी भी ‘क़ौमी-एकता’ का राग नहीं अलापा । इतना बड़ा देश-व्यापी नरसंहार शायद ही कभी हुआ हो । लेकिन, देशहित के नाम पर, सबकुछ भूलकर सिखों ने कई बार कॉंग्रेस को जमकर वोट दिया और आज भी पंजाब में कॉंग्रेस की सरकार है । सिखों ने क़ौम के नाम पर वोट देने की बजाय विकास या राजनीतिक-विचारधारा के नाम पर वोट दिया । आज भी देश के सजग-प्रहरी के तौर पर सिखों का नाम पहले पायदान पर बड़े गर्व के साथ लिया जाता है । जबकि इसके उलट भाजपा को मुस्लिम क़ौम का वोट पाने में पिछले 20 सालों से नाक़ामी ही मिली है और आगे भी कई दशक लगेंगे । ये कुछ ऐसे पहलू हैं जिनका अध्ययन पाकिस्तान की सरकार बड़ी बारीक़ी से करती है और पूरी दुनिया में ज़िहादी मानसिकता तैयार करने में सफ़ल रहती है । कश्मीर मामले पर हर तरफ़ से हार चुके, हताश-निराश, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को अब ‘मुस्लिम-क़ौमी एकता’ का ही सहारा है । भारत में ‘मुस्लिम-क़ौमी एकता’ द्वारा पकिस्तान के विरोध में खुलकर प्रदर्शन न होना ऐसी अहम् वज़ह है जो पाकिस्तान को हिम्मत देती है , हिन्दुस्तान को आँख दिखाने का । भारत में ‘मुस्लिम-क़ौमी एकता’ का व्यापक तौर पर ‘भाजपा व् मोदी-विरोध’ करना और ‘इमरान-विरोध’ न करना भी , इमरान खान का, हौसला है । अंतराष्ट्रीय-स्तर पर हर तरफ़ से टूटे-बिखरे इमरान को उम्मीद है कि भारत में ‘मुस्लिम-क़ौमी एकता’ का नारा क़ारगर हो सकता है और कश्मीर पाकिस्तान का हो सकता है ।
कश्मीर मामले पर , इमरान खान के ख़िलाफ़, भारतीय मुसलमानों की चुप्पी इमरान खान की बढ़ती हुई ज़िहादी हिम्मत है । ये हिम्मत क्या सन्देश देना चाह रही इस पर फ़िलहाल कुछ कहना मुश्क़िल है मग़र इस बात की उम्मीद ज़रूर है कि छोटी-छोटी बातों पर ‘क़ौमी एकता’ और क़ौम के नाम पर इकट्ठा होकर बेहद संवेदनशीलता का परिचय देने वाले भारतीय मुसलामानों को, इमरान खान की मुस्लिम-एकता के ऐलान का विरोध ख़ुल कर करना होगा । कश्मीर मामले पर मुसलमानों को ख़ुलकर आगे आना पड़ेगा, वतन-परस्ती का सबूत या सर्टिफ़िकेट देने के लिए नहीं बल्कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को ये बताने के लिए कि क़ौमी एकता सिर्फ़ क़ौम के लिए नहीं होती बल्कि वतन के ख़िलाफ़ उठती आवाज़ को नेस्तनाबूद करने के लिए भी होती है । आमीन !
नीरज वर्मा
संपादक
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