तकनीकी तौर पर देखा जाए तो राष्ट्रीय पार्टी का मतलब होता है ऐसी पार्टी जो 4 लोकसभा सीटों के साथ 4 प्रदेशों में कुल वोट का 6% पा चुकी हो फ़िर 3 राज्यों से उसके हिस्से में 11 सीटें आईं हों या विधानसभा चुनावों के दौरान 4 राज्यों में कुल पड़े वोट का 6% वोट मिला हो । मग़र एक आम नज़रिया यह कहता है कि जिस पार्टी का प्रसार देशव्यापी हो चुका हो उसे भी राष्ट्रीय पार्टी माना जाना चाहिए । ऐसी पार्टी जो न सिर्फ़ आम चुनाव लोकतांत्रिक तरीक़े से लड़ती हो, बल्कि ख़ुद पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से पदाधिकारियों का चुनाव और कार्यों का क्रियान्यवन करती हो । भारत में कहने के लिए दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां हैं – भाजपा व् कांग्रेस । मग़र 2019 के भारत का एक बड़ा तबक़ा ये मानता है, कि …. तकनीकी तौर पर कॉंग्रेस पार्टी भले ही राष्ट्रीय हो लेकिन, पार्टी के अंदर, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के निर्वहन का मामला सिवाय खानापूर्ति के और कुछ भी नहीं । दिन-प्रतिदिन बड़ा होता ये तबक़ा …. कांग्रेस पार्टी को भी, समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय जनता दल- डी.एम्.के.- शिरोमणी अकाली दल- जनता दल (S) – शिवसेना- टी.डी.पी.- राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी- लोक जनशक्ति पार्टी जैसी अन्य पारिवारिक पार्टी, की ही तरह मानता है । इस बड़े तबक़े की इस सोच को आप खारिज़ नहीं कर सकते ।
आइये नज़र डालते हैं इस हक़ीक़त पर …. लोकसभा चुनाव-2019 के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जब कांग्रेस अध्यक्ष पद से ये कहकर हट गए कि … “कोई ग़ैर-गांधी पार्टी की बागडोर अपने हाथ में ले” । यानि गांधी परिवार से अलग परिवार का ही कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बने । लेकिन राहुल के अध्यक्ष पद से हटने के क़रीब महीने भर बाद स्थिति ये हो गयी कि, बतौर-पार्टी, कांग्रेस ज़िंदा है या ख़ात्मे की ओर है ….. ये अंदाज़ ख़ुद कॉंग्रेस कार्यकर्ताओं को भी नहीं है । राहुल गांधी के आग्रह (“कोई ग़ैर-गांधी पार्टी की बागडोर अपने हाथ में ले”) के बावजूद कांग्रेस का मुखिया बनने को कोई तैयार नहीं । और कोई तैयार है भी तो ख़ुद कांग्रेस के भीतर कोई इसे गंभीरता से नहीं ले रहा । क्योंकि कई दशकों तक गांधी परिवार द्वारा इसे प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाए जाने के बाद कॉंग्रेस के बड़े नेता मान चुके हैं कि इस ‘कंपनी’ के ‘चेयरमैन’ पद पर सिर्फ़ गांधी परिवार का हक़ है, और …. राहुल गांधी, अग़र, अध्यक्ष पद पर बने रहने के लिए तैयार नहीं होते हैं तो प्रियंका रॉबर्ट वाड्रा के बच्चों के बड़े होने का इंतज़ार किया जाए । ख़ुद कॉंग्रेस के भीतर बड़े नेताओं का ये मानना है कि कोई भी ग़ैर-गांधी, कांग्रेस, पार्टी को नहीं चला सकता और न ही पार्टी को एकजुट रख सकता है । 23 जून 2019 को कॉंग्रेस के बड़े नेता मणिशंकर अय्यर ने कहा कि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर ‘ग़ैर-गांधी’ की नियुक्ति में गांधी फैमिली सहयोग करे । यानि अगर कोई ग़ैर-गांधी भूले-भटके कॉंग्रेस अध्यक्ष बन भी जाता है तो वो भी, गांधी परिवार की कृपा का , मोहताज़ होगा । या यूँ कहें कि वो एक दिखावटी रबर स्टैम्प होगा और उसका कार्यकाल भी गांधी परिवार के रहमो-करम पर टिका होगा । कुल मिलाजुला कर कहानी ये है कि – गांधी परिवार के बिना कॉंग्रेस अकाल ‘मृत्यु’ को प्राप्त हो जाएगी ।
गांधी परिवार के राहुल गांधी के इस फ़ैसले से, उस बड़े तबक़े की बात खुलकर साबित हो गयी कि …. कॉंग्रेस पार्टी अभी तक पुश्तैनी परम्परा के नक़्शे-क़दम पर ही चल रही थी , जिसका ख़ुलासा खुद राहुल गांधी और कॉंग्रेस के नेताओं ने कर दिया । राहुल गांधी की इस बात के लिए भले ही आलोचना होती रहे, लेकिन …. राहुल गांधी के इस क़दम की, भारतीय लोकतंत्र में, तारीफ़ की जानी चाहिए । तारीफ़ इस मायने में, कि, राहुल गांधी का कॉंग्रेस अध्यक्ष न होना , भारत की राजनीति में एक नए क़दम और नयी सोच की दिशा में क्रांतिकारी क़दम होगा । गांधी-परिवार के बिना अनुशासन और संगठित संगठन के नज़रिये से एक नया ऐलान होगा । ये ऐलान सिर्फ़ कॉंग्रेस तक सीमित नहीं रह जाएगा, बल्कि, राहुल गांधी के इस फ़ैसले की असर पूरे हिन्दुस्तान की ‘पारिवारिक’ पार्टियों पर पड़ेगा ।
राहुल गांधी के इस ऐलान का दूरगामी असर ऐसा होगा कि …. किसी लिमिटेड कंपनी की तर्ज़ पर चल रहीं कई ‘परिवारिक’ पार्टियां राहुल गाँधी के इस क़दम से बेहद दबाव में आ जाएँगी । सपा प्रमुख मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी के अनुभवी नेताओं को किनारे करते व् पुश्तैनी परम्परा का पालन करते हुए , अपने नौसिखिये पुत्र, अखिलेश को बिना तज़ुर्बे के उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का सीधा मुख्यमंत्री बना दिया। अब सब देख रहे हैं, कि अखिलेश से पार्टी संभाले नहीं संभल रही । बिहार में RJD ‘लिमिटेड कंपनी’ के ‘मैनेजिंग डायरेक्टर’ तेजस्वी यादव के ख़िलाफ़ बिगुल बज चुका है । उम्रदराज़ और तज़ुर्बेदार नेताओं का स्वाभिमान जागता दिखाई दे रहा है । अनुशासन और एकजुटता के नाम पर एक परिवार-विशेष की चमचागिरी के बूते अपना अस्तित्व बनाए रखने में अब लोगों को शर्म आ रही है । लोग तेजस्वी के नेतृत्व पर सवाल उठा रहे हैं । यही हाल , आने वाले दिनों में, हर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी नुमा राजनीतिक दल का होगा । राहुल गांधी का कॉंग्रेस अध्यक्ष पद पर न बने रहना , एक, सकारात्मक सन्देश लेकर लोगों के बीच जा रहा है । सन्देश इस बात का कि …. लोकतंत्र में एक पार्टी का, पार्टी के अंदर भी, लोकतांत्रिक तरीक़े से चलना ज़रूरी है । सन्देश इस बात का कि पुश्तैनी और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में अंतर होता है । सन्देश इस बात का कि अपनी उम्र और तज़ुर्बे को दरक़िनार कर किसी प्राइवेट कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर की चापलूसी के बल पर अपनी नौकरी बजाए रखने की तर्ज़ पर चलने वाले नेताओं को अब शर्म आनी चाहिए । सन्देश इस बात का कि जाँत-पाँत-धर्म के नाम पर अगर आप अपनी पार्टी चला भी रहे हैं तो पार्टी पर पहला हक़ किसी परिवार-विशेष की पीढ़ी-दर-पीढ़ी को ही क्यों ? सन्देश इस बात का कि किसी पार्टी के निर्माण में जब सैकड़ों-हज़ारों-लाखों कार्यकर्ताओं का पसीना बहता है तो इसके ऊपर एकछत्र-राज्य किसी परिवार-विशेष का कैसे हो जाता है ? सन्देश इस बात का कि युवा पीढ़ी अपना हक़ बेहिसाब मांगती है, तो हक़ का ख़्याल भी पुत्र-पुत्रियों और परिवार-विशेष के लोगों तक ही सीमित क्यों रखा जाए ? एक ऐसा सन्देश जो, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में न्यायिक व्यवस्था के तहत, पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच समानता की बात करता है और पुश्तैनी हक़ को नक़ारता है ।
ये कुछ ऐसे सन्देश हैं , जो आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति के चाल-चलन का रुख़ बदल कर रख देंगें । अपनी पार्टी को , अपने बाद, पुत्र-पुत्रियों, पौत्र-पौत्रियों की जागीर समझने वाले नेताओं की अब ख़ैर नहीं । राहुल गांधी के (पार्टी अध्यक्ष पद पर न बने रहने के) इस फ़ैसले को भले ही आलोचना का शिकार बनना पड़ रहा है , लेकिन, ये फ़ैसला कई मायनों में ऐतिहासिक है । ये फ़ैसला कांग्रेस के साथ अन्य पार्टियों की फ़ितरत को भी सुधार देगा । लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के छाते के नीचे लोकतांत्रिक पार्टी बनाकर उसे अपनी जागीर समझने वाले नेताओं को अब अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और समर्पित कार्यकर्ताओं को अनदेखा करना आसान नहीं होगा । राहुल गांधी के इस क़दम ने उन नेताओं की नींद हराम कर दी है जो अपने अपने बाद पुत्र-पुत्रियों को प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री बनाए देने की परम्परा को शिद्दत से निभाए जा रहे हैं या निभाने का मंसूबा पाले हैं ।
आप राहुल गांधी की भले ही कितनी आलोचना कर लें , उनका मज़ाक उड़ा लें …. पर, इस बात के लिए उनकी प्रशंसा ज़रूर करेंगे कि उनका (पार्टी अध्यक्ष पद पर न बने रहने का) ये फ़ैसला दुस्साहसिक है । आप सर्वे करा कर देख लें , पाएंगे कि …. ….. समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय जनता दल- डी.एम्.के.- शिरोमणी अकाली दल- जनता दल (S) – शिवसेना- टी.डी.पी.- राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी- लोक जनशक्ति पार्टी …. जैसी ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों’ के आक़ा किसी क़ीमत पर ये ख़तरा मोल नहीं लेंगे । राहुल गांधी इस बात को जानते हैं कि कॉंग्रेस में उनका कोई विकल्प नहीं और न ही गांधी परिवार के बिना कॉंग्रेस नेता अनुशासित रह सकते हैं , बावज़ूद इसके उन्होंने एक ग़ैर-गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की मुहिम की शुरुवात की । राहुल गांधी को आप भले ही अनाड़ी या पप्पू क़रार दें, मग़र इस बात के लिए आप उनकी तारीफ़ ज़रूर कर सकते हैं कि …. जाने-अनजाने ही सही, लेकिन, राहुल गांधी ने वंशवाद की पुश्तैनी-परम्परा और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के बीच का बुनियादी फ़र्क़ लोगों के साथ-साथ (‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनी’ के) नेताओं को भी समझा दिया है ।
नीरज वर्मा
सम्पादक
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