गुरु और गुरु-दीक्षा क्या है ?
गुरु क्या है ? गुरु-ज्ञात है, अज्ञात है ? प्रत्यक्ष है, अप्रत्यक्ष है ? तनधारी है, निर्विकार है ? शक्ति है, पथ-प्रदर्शक है ? ये प्रश्न कइयों के दिमाग में कौतुहल, जिज्ञासा पैदा करता है । ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके बारे में भक्त-शिष्य, योग्य-गुरु की तलाश में भटकता हुआ साधक या फ़िर एक जिज्ञासु आम आदमी हर कोई जानना चाहता है । महान संत अघोरेश्वर महाप्रभु ने इस सवाल का जवाब कुछ इस तरह से दिया है — “(वे) गुरु तो प्राण हैं, जब तक तुम्हारा प्राण रहेगा, वे तुम्हारे अभ्यन्तर में विराजमान रहेंगे” । मतलब कि गुरु वो है अनगढ़ को भी गढ़ कर उसमें ज्ञान का सागर भर देता है । कुपात्र को भी सुपात्र में बदल देता है । गुरु तो वो होता है जो पापी को पवित्र बना दे और घोर को भी अघोर बना दे ।
अघोरेश्वर महाप्रभु साफ़ कहते हैं कि — “लोग मुर्दों का शिकार कर के खाते थे, खुशियां मनाते थे कि मैंने शिकार किया है । लेकिन गुरुजन व् महापुरुष ज़िंदा का शिकार करते हैं और जिन्दे-ज़िन्दा उस शिकार को रखते भी हैं । और…. वह शिकार एक ऐसा बखूबी …. एक ऐसे अस्तित्व को प्राप्त कर लेता है , निखर कर… जो कि अपने इस जीवन में बहुत कुछ समझता भी है, करता भी है, प्राप्त भी करता है । और …. उस महामाया का उस पर अनुग्रह भी रहता है ” । पाठकगण यहाँ यहां एक बात को ज़रुर समझ लें कि अघोरेश्वर महाप्रभु का ये मतलब उस स्थूल क़ाया वाले गुरु तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये निराकार भी हो सकता है ।
अघोर-साहित्य के विश्वप्रसिद्ध लेखक (स्वर्गीय) विश्वनाथ प्रसाद सिंह अस्थाना अपनी क़िताब, ‘अघोर एक दृष्टि में / Aghora at a glance‘ में लिखते हैं कि – “गुरु हांड-मांस वाला कोई तनधारी ही हो ऐसा आवश्यक नहीं । गुरु तो एक तत्व है जो सदैव शिव में ही निहित रहता है” । गुरु के सम्बन्ध में अघोरेश्वर महाप्रभु की बातों को अस्थाना जी ने जिस तरह से स्पष्ट करने का प्रयास किया है , उसे एकलव्य और द्रोणाचार्य के प्रसंग के ज़रिये समझें — ये प्रसंग आप पढ़ेंगे तो उसमें वर्णित है कि किस तरह से जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुष की शिक्षा देने से मना कर दिया था तो एकलव्य ने उनकी मूर्ति को ही गुरु-रुप में स्थापित कर धनुष विद्या में ऊंचाई को प्राप्त किया था । यानि गुरु की स्थूल काया के अभाव में एकलव्य ने गुरु-मूर्ति का निर्माण कर उसमें ही अपनी भक्ति को समर्पित कर दिया । इस प्रसंग से ये साफ़ है कि आप को प्रेरणा देने वाले, आपको या आपके पथ-प्रदर्शक के रुप में ज्ञात-अज्ञात तत्व को ही गुरु कहते हैं । यहां एक बात प्रासंगिक है कि मनुष्य स्वयं स्थूल क़ाया में निवास करता है, लिहाज़ा स्थूल क़ाया के प्रति उसका आकर्षण स्वभाविक रहता है । एक आम आदमी जब भक्ति मार्ग पर प्रेरित होता है तो उसे एक ऐसे हांड-मांस स्थूल क़ाया की तलाश होती है जो उसकी जिज्ञासाओं को शांत कर सके, उसका मार्गदर्शन कर सके, उसे सही मार्ग पर प्रशस्त कर सके । गुरु के सम्बन्ध में एक बार फ़िर से क़िताब ‘अघोर एक दृष्टि में’ का अंश उठाएं तो उसमें अस्थाना जी ने बहुत सीधा और सपाट लिखा है कि- “आप जिस किसी तपस्वी से मिलें या तपोस्थली पर जाएं और, वह आपके अंतःकरण को अपनी ओर आकर्षित करने लगे, आप भाव-विभोर हो उठें, आप विव्हल हो उठें तो वही आपका गंतव्य है ।जिस गुरु के दर्शन-मात्र से आपका अंतःकरण प्रसन्न हो जाए, मन ही मन आप (उसकी भक्ति का) आलिंगन करने लगे, आपका देह भाव-शून्य हो जाए, वही आपका असली गुरु है । उसके मुख से निकली हुई कोई वाणी अथवा उस तपोस्थली में लिखे हुई कोई वाणी या मन्त्र आपके ह्रदय में तुरंत ही प्रेम जगा दे , वही आपका गुरु-मन्त्र हो जाता है । इससे अलग और कुछ नहीं है । न कुछ छोड़ना है और न कुछ पकड़ना है, यही असली भक्ति है “।
हज़ारों-हज़ार को बैठा कर नामदान देना और कान-फूंकना गुरुत्व नहीं है । महज़ धार्मिक शिक्षा या प्रवचन देना भी गुरु होने की दावेदारी की पुष्टि नहीं करता । हज़ारों-हज़ार की भीड़ की मौज़ूदगी में कानफुंकवा या नामदान के तरीके को लोग गुरु-दीक्षा या गुरु-मन्त्र कहते फ़िरते हैं । जबकि ये दीक्षा कत्तई नहीं है । ये खानापूर्ति है, जिसका कोई अर्थ या असर नहीं होता ।
गुरु-भक्ति समर्पण, विश्वास और श्रद्धा के साथ मन की प्रसन्नता का बोध है । न कुछ पाना है न छोड़ना है । संस्कार-युक्त होकर निर्लिप्त भाव से उस गुरु और उसकी दीक्षा में लिप्त रखकर मानवजीवन की सार्थकता को सिद्ध करना है । जीवन-मूल्यों को समझना है । प्राचीन समय में सुयोग्य गुरु के सानिध्य में गुरुकुल की स्थापना और दीक्षित होने की परम्परा इसलिए रखी गयी थी । लेकिन आज आलम दूसरा है, आज बच्चे का चरित्र या संस्कार निर्माण हो या न हो, लेकिन — बच्चा बड़ा होकर ज़्यादा से ज़्यादा कमाए कैसे इसका ध्यान रखा जा रहा है ।
ज़्यादातर लोग अपने बनाये हुए गुरु के पास, ज़्यादा धन मिलने और अन्य भौतिक उपलब्धियों की आकांक्षा से जाते हैं । इन की पूर्ति न होता देख, धार्मिक स्थान या गुरु बदलते भी देर नहीं लगती । कौन सा मंदिर या कौन सा गुरु ज़्यादा मालदार बना सकता है, लोग वहाँ ज़्यादा दौड़ते हैं । धार्मिक स्थानों पर बढ़ती भीड़ तथा सामूहिक नामदान और दीक्षा तो ऐसे बढ़ रही है , जैसे आप दिल्ली-मुंबई के किसी ट्रैफ़िक में फंस गए हों । भक्ति का भी एक अपना बाज़ार हो गया है, जहाँ ख़ूब भीड़ हो रही है । इन ‘बाज़ारों’ से निकले तथाकथित भक्ति भाव वाले जीवों के निजी जीवन में आप झांकेंगे तो आपको उनके मन में ईश्वर या गुरु से ज़्यादा धन और भौतिक सुख के प्रति समर्पण ज़्यादा दिखेगा, गुरु-रुपी ईश्वर या उसकी भक्ति , इनके, भौतिक लोभ-लिप्सा के नीचे आह भरती दिखेगी ।
कामता प्रसाद
वरिष्ठ संवाददाता
‘इस वक़्त’
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