12 दिसंबर 2019 को भारत में CAA का क़ानून लागू हुआ और उसके बाद से ही पूरे हिन्दुस्तान में हिंसा का दौर चालू है । जिनकी यादाश्त कमज़ोर नहीं होगी, उन्हें अच्छी तरह से याद होगा कि दिसंबर 2019 और जनवरी 2020 तक किस तरह से CAA विरोधियों ने दहशतगर्दी दिखाई , देश की राजधानी दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में जमकर पत्थरबाज़ी हुई, आगज़नी हुई और सरेआम कई गाड़ियों को फूंक डाला गया, जगह-जगह रास्ता जाम कर दिया । हालात यहां तक पहुँच गए कि देश की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट, तक को अपने प्रतिनिधियों को प्रदर्शनकारियों के पास भेजना पड़ा, ये अलग बात है कि CAA का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और मुस्लिम बहुल इलाक़ों में ये विरोध बदस्तूर चलता रहा ।
लेकिन इन सबके बीच जो सबसे ज़्यादा निराशाजनक पहलू रहा, वो रहा, भारत की कई राजनीतिक पार्टियों द्वारा दशहतगर्दी को मौन समर्थन ! कॉंग्रेस और आम आदमी पार्टी सहित, देश की, कई राजनीतिक पार्टियों ने CAA के विरोध में हो रहे प्रदर्शन की आड़ में दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ एक लफ्ज़ भी नहीं बोला और रहस्यमय चुप्पी साधे रखा । सिर्फ़ सियासी दल ही नहीं, बल्कि, CAA विरोधियों की इस दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ …. विदेशी मीडिया के साथ-साथ भारत के पावरफुल मीडिया हाउसों ने भी चुप्पी साध ली । चुप्पी का ये दौर, दहशतगर्दी के 2 महीनों के दरम्यान, जारी रहा । लेकिन हमेशा की तरह साम्प्रदायिक आधार पर न्यूज़ बनाने और चलाने वाले इन देसी-विदेशी मीडिया हाउसों की पोलपट्टी ख़ुल कर तब सामने आ गयी जब दिल्ली में CAA के पक्ष और विरोध में लोग आमने सामने आ गए और बढ़ती झड़प के बाद शर्मनाक़ हिंसा का दौर शुरु हो गया ।
ख़ुद को पत्रकारिता का मापदण्ड क़रार देने वाले कई मीडिया हाउसों की साम्प्र्दायिक नीतियों का पर्दाफ़ाश हो गया । 24 फ़रवरी 2020 को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के आगमन के मद्देनज़र, पहले से ही प्लानिंग के तहत, हिंसा को अंजाम दिया गया । देश को बदनाम करने वाली ताक़तें एकजुट हो गयीं और अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे के दौरान जमकर हिंसा हुई । 45 लोग मारे गए, कई लापता हैं । पुलिसिया कार्यवाही चालू आहे और तफ़्तीश के बाद क़ानूनी कार्यवाही शुरु करने का ऐलान भी कर दिया गया । इसमें कोई शक़ नहीं कि दिल्ली दंगों में दहशतगर्दी का नंगा नाच हुआ….. इसमें भी कोई शक़ नहीं कि दिल्ली दंगों में कई माँओं की कोख सूनी हुई – कई पत्नियां बिना पति की हो गयीं । इन सबकी जितनी निंदा की जाए वो कम है । लेकिन, इन सबके बीच, कई न्यूज़ चैनल्स और अख़बारों के संदिग्ध रवैये ने इस बात की पुष्टि कर दी कि, कैसे, भारत में न्यूज़ चैनल्स और अखबार वाले अपने आक़ाओं के साम्प्रदायिक इशारे पर काम करते हैं । कैसे ये साम्प्रदायिक चैनल, साम्प्रदायिक आधार पर, खबरों का विभाजन करने के बाद बड़ी धूर्तता के साथ धार्मिक-सामाजिक भाईचारे का सन्देश प्रसारित-प्रकाशित करते हैं ! आम आदमी इस छिपे हुए एजेंडे और धूर्तता को नहीं समझ पाता ।
लेकिन आइये, हम-आप मिलकर, समझते हैं न्यूज़ चैनल्स और अखबारों के साम्प्रदायिक तौर-तरीकों को …… सबसे पहले बात उस घोर साम्प्रदायिक अंतराष्ट्रीय मीडिया हाउस की, जिसका नाम है BBC । BBC मीडिया जगत का वो अंतराष्ट्रीय कीड़ा है जो भारतीय पत्रकारों का इस्तेमाल, होम्योपैथिक दवा की तर्ज़ पर पर, धीरे-धीरे भारत की छवि ख़राब करने के लिए, बरसों से, कर रहा है । BBC का ये आम रवैया रहा है कि वो हिन्दू-मुस्लिम मामलों के पीछे हमेशा ही हिन्दुओं को या हिन्दू-पक्ष को सामने रखने वालों को दोषी मानता है । पाकिस्तान में हिन्दुओं की हालत को महज़ कभी-कभार वाले न्यूज़ बताने वाला, BBC, पूरी तरह से साम्प्रदायिक आधार पर रिपोर्टिंग करता है, ख़ासतौर पर भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ तो वो पूरी शिद्दत के साथ न्यूज़ बनाता और चलाता और दिखाता है । 2014 में जब से भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, तब से भारत की छवि ख़राब करने का काम, BBC द्वारा, भारतीय पत्रकारों के सहयोग से ज़ोरों पर है । इसी तरह अमेरिका का एक अख़बार है — ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ । ये अमेरिकी अख़बार बिना किसी प्रमाण और आधार के लिखता है कि दिल्ली के दंगों के दौरान आई. बी. अफ़सर, अंकित शर्मा, की हत्या में हिन्दुओं का हाथ है । बिना जांच-पड़ताल वॉल स्ट्रीट जरनल की ये पत्रकारिता साम्प्रदायिकता को बढ़ाने का एक नमूना भर है । इसी तरह एक और अमेरिकी अखबार ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने भी भारत-विरोधी पत्रकारिता को जारी रखा है।
जानबूझकर भारत-विरोधी, इस तरह की, रिपोर्टिंग को आप क्या कहेंगे? TV वाले रवीश-बरखा-राजदीप-आरफ़ा ख़ानम वाली रिपोर्टिंग? जी हाँ आप इस तरह की साम्प्रदायिक रिपोर्टिंग को TV वाले राजदीप-रवीश-बरखा स्टाइल वाली रिपोर्टिंग कह सकते हैं । क्योंकि TV वाले बरखा-रवीश-राजदीप-आरफा ख़ानम भारत में ऐसे नाम हैं जो पत्रकारिता के क्षेत्र में कुख्यात बनते जा रहे हैं । आप ऐसे पत्रकारों की रिपोर्टिंग देखियेगा… ये एकतरफ़ा रवैय्या इस्तेमाल करते हैं । क्योंकि ये पत्रकार रिपोर्टिंग करते समय अपनी निजी लोकप्रियता को भी ध्यान में रखते हैं, और इसके लिए कोई भी तरीक़ा इस्तेमाल करते हैं ।
ऐसे में ये पत्रकार धूर्तता की सारी ट्रिक आज़माते हैं और इस नीति पर काम करते हैं कि — जहां सारे लोग भारत माता की जय बोलें , वहाँ आप भारत माता की जय नहीं बोलने वालों के साथ खड़े हो जाओ, अपने आप चर्चित हो जाओगे। ये ऐसे पत्रकार हैं जो टुकड़े गैंग के साथ खड़े हो जाते हैं क्योंकि इनका मानना है भारत को जोड़ने वाले करोड़ों की भीड़ में खड़े होने पर कौन पहचानेगा …. इसलिए इन करोड़ों के खिलाफ मुट्ठी भर देशद्रोहियों के साथ खड़े हो जाओ , खूब नाम होगा हमारी पत्रकारिता का ।
आप बारीक़ी से इन तथाकथित पत्रकारों की पत्रकारिता देखेंगे तो पाएंगे कि ये ऐसे ऐसे पत्रकार हैं , जिन्होंने भारत में साम्प्रदायिक पत्रकारिता को उकसाने, भड़काने और सुलगाने का काम किया है । ये ऐसे ऐसे पत्रकार हैं जो पंजाब-गुजरात और दिल्ली जैसे दंगों की पृष्ठभूमि को पूरी तरह एक तरफ़ा नज़रिये से तैयार कर अपने जैसे साथियों के साथ मिलकर खाद-पानी देते हैं । अब आप समझ गए होंगे कि रवीश-बरखा-राजदीप-आरफ़ा ख़ानम वाली पत्रकारिता को विदेशी पुरस्कार क्यों मिलते हैं ? देश में मिले पुरस्कारों पर तो आप ये कह सकते हैं कि रवीश कुमार-बरखा दत्त-आरफा ख़ानम या राजदीप वाली पत्रकारिता को अपने लिए इस्तेमाल करने वाली कॉंग्रेसी या विपक्षी दलों की लॉबी अर्नब गोस्वामी- सुधीर चौधरी-रजत शर्मा-दीपक चौरसिया जैसे भाजपा समर्थक पत्रकारों की ख़िलाफ़त वास्ते, रवीश कुमार-बरखा दत्त जैसों के लिए, पुरस्कार का इंतज़ाम करती है । लेकिन इन दोनों लॉबी के बीच जब देश की सुरक्षा या छवि सामने आती है तो आम आदमी शायद अर्नब गोस्वामी- सुधीर चौधरी-रजत शर्मा-दीपक चौरसिया जैसों के साथ ही खड़ा दिखेगा । क्योंकि पत्रकार हो या सैनिक, देश के मामले में उसे समझौता नहीं करना चाहिए जैसा कि ब्रिटिश, यूरोपियन और अमेरिकी पत्रकार खुलेआम करते हैं । लेकिन हिन्दुस्तान में उल्टी गंगा बह रही है, आजकल कई पत्रकार पुरस्कार या सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए इस स्टाइल की पत्रकारिता कर रहे हैं जिससे विवाद बढ़े और इसके चलते इन पत्रकारों की लोकप्रियता में इज़ाफ़ा हो ।
इंडिया में कई ऐसे पत्रकार हैं जो CAA-विरोध की खबरें ख़ूब दिखाते हैं लेकिन CAA-विरोध के मददेनज़र हुई हिंसा को लोकतांत्रिक व्यवस्था में महज़ एक विरोध भर बताते हैं और न्यूज़ को सामान्य तरीक़े से पेश करते हैं मानो CAA-विरोध की आड़ में दशहतगर्दी का कोई मतलब ही नहीं है । लेकिन यही पत्रकार CAA-समर्थन वाली रैलियों को दिखाने-मात्र से भी परहेज़ करते हैं । इसके अलावा किसी के इशारों पर काम करने वाले ये पत्रकार इस बात पर भी चुप्पी साध लेते हैं जब ओवैसी का भाई और उनकी पार्टी के नेता अपनी क़ौम की 15 करोड़ संख्या का हवाला देकर बहुसंख्यक 100 करोड़ को मार-काट देने की बात करते हैं ।
ख़ुलेआम बहुसंख्यक 100 करोड़ को मार-काट देने की बातपर पत्रकारों की संदिग्ध चुप्पी और दूसरी बातों पर पत्रकारिता की दुहाई ये बताती है कि — घोर साम्प्रदायिक आधार पर काम करने वाले रविशिया-बर्खाइ नुमा पत्रकार, एक वर्ग-विशेष को उकसाने,उद्द्वेलित या भड़काने का कूटनीतिक रवैया बख़ूबी अख्तियार करते है । ये वही साम्प्रदायिक पत्रकार हैं जो CAA-विरोध और समर्थन के बाद हुई दिल्ली हिंसा को खूब उछाल उछाल कर पेश करते हैं ! दंगों के समय अपने टी वी चैनल वाले ऑफिस में बैठने वाले और पूरी शान्ति होने बाद हेलमेट लगा कर और बुलेटफ्रूफ जैकेट पहन कर लोगों को बेवकूफ़ बनाने वाले पत्रकारों की संख्या में इज़ाफ़ा खूब हो रहा है ।
‘आज तक’ और ‘R भारत’ वाले चैनल्स के रिपोर्टर शान्ति-बहाली के बाद हेलमेट और बुलेटप्रूफ़ जैकेट पहनकर और एक वर्ग विशेष केलोगों को ही पीड़ित और दूसरे वर्ग के लोगों को हमलावर बताते हैं। ये पत्रकार भारत की उस आम जनता को खूब मूर्ख बनाते हैं, जो इन पत्रकारों से ये भी नहीं पूछती कि दंगों के समय आप कहाँ लापता थे और शांति होने के बाद आपको हेलमेट और बुलेटप्रूफ जैकेट पहनने की ज़रुरत क्यों पडी ? आम जनता इन पत्रकारों से ये भी नहीं पूछती कि दंगों में पीड़ित सिर्फ़ एक ही क्षेत्र या समुदाय के लोग कैसे हो सकते हैं? पत्रकारिता का बेसिक सिद्धांत है कि बिना भय या पक्षपात के या जाति या धर्म का अंतर किये बिना समान भाव से सभी वर्ग के लोगों की ख़बर को समानता के आधार पर प्रकाशित या प्रसारित करना ।
लेकिन भारत की छवि खराब करने पर तुले कुछ अख़बारों या टी वी न्यूज़ चैनल्स का अंदाज़ देखेंगे तो आप दंग रह जाएंगे । उदाहरण के तौर पर भारत के प्रतिष्ठित अखबार, The Times of India, की 25 फरवरी 2020 के बाद से रिपोर्टिंग को आप ध्यान से देखेंगे तो ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ये बताने पर तुला हुआ है इन दंगों में हिन्दुओं ने मुसलमानों को कैसे मारा या बेघर किया ? मतलब 12 दिसंबर 2019 से CAA के ख़िलाफ़ पूरे देश में हुई हिंसा पर ये अखबार इस तरह की न रिपोर्टिंग करता है न इतनी व्यापक स्तर पर ख़बर दिखाता है लेकिन जब CAA-विरोधियों के ख़िलाफ़ CAA-समर्थक आमने-सामने आ जाते हैं तो ये अखबार अपना चुप्पी वाला रवैय्या बदल कर पूरी तरह से विदेशी अख़बारों के नक्शेक़दम पर चलता नज़र आता है । ‘NDTV’ नाम के न्यूज़ चैनल पर तो शुरुवाती दौर से ही विदेशी लाइन-लेंथ पर काम करने का आरोप लगता रहा है । CAA के ख़िलाफ़ तल्लीनता से खड़ा ‘आज तक’ नाम का तथाकथित स्वयंभू नंबर वन चैनल CAA विरोध प्रदर्शन को लंबा-चौड़ा कवरेज देता है और CAA के समर्थन वाली ख़बरों को दबा देता है या छोटी सी ख़बर दिखाकर खानापूर्ति करता है। इसके विपरीत, ‘R bHARAT’ , ‘Zee न्यूज़’ और ‘सुदर्शन टी वी’ तो CAA समर्थन वाले माने जाते रहे, शुरुवाती दौर से ही । अब सवाल उठता है कि दिल्ली के दंगों की पृष्ठभूमि में और दंगों के बाद मीडिया की भूमिका क्या थी ?
CAA विरोध की आड़ में हिंसा करने वालों पर शुरु में ही कड़ी कार्यवाही की मांग या इनकी हिंसात्मक ख़बरों को जमकर दिखाया जाता, इनकी आलोचना की जाती और नैतिक दबाव बनाया जाता तो क्या दिल्ली में दंगे होते? क्रिया की प्रतिक्रया होती? कॉंग्रेस और केजरीवाल के साथ-साथ कुछ अखबार और कुछ न्यूज़ चैनल्स भी चुप्पी साधे इस हिंसा का समर्थन करते रहे। क्यों? आप दर्शकों से ये गुज़ारिश है कि आप इस सवाल पर गंभीरता से सोचें ! साम्प्रदायिक आधार पर बंटे अखबारों और टी.वी. चैनल्स की लिस्ट बहुत लम्बी है, जिनका ज़िक़ करने से ये ख़बर बहुत लम्बी हो जाएगी, लेकिन अंत में ये सवाल ज़रुर पूछेगी कि …. ऐसे में क्या माना जाए, कि BBC, The Wall स्ट्रीट जर्नल और अन्य विदेशी अखबारों की तर्ज़ पर रिपोर्टिंग करने वाले ये भारतीय पत्रकार तब तक चुप रहना उचित समझते हैं जब तक कि तनाव ज़बरदस्त न हो जाए या फ़िर कुछ लोग मारे न जाएं? ज़ाहिर है आपको समझ में आ गया होगा कि भारत के कुछ मीडिया हाउस किस तरह से साम्प्रदायिक नीति पर काम कर रहे हैं । यक़ीन मानिये दोस्तों इन दोहरी नीति वाले पत्रकारों को संदेह के दायरे में खड़ा करना ज़रूरी है । क्योंकि बर्बादी के आलम में एक वर्ग विशेष के पक्ष में बोलने वाले ये साम्प्रदायिक पत्रकार चुपचाप देश की खबरों को साम्प्रदायिक आधार पर बाँट कर देश का नुकसान कर रहे हैं । जिनका ख़ुलासा होना ज़रुरी था । दोस्तों अब ये आपके ऊपर निर्भर है, कि बतौर दर्शक या पाठक आप इन मीडिया हाउस, अखबारों या टी वी न्यूज़ चैनल्स या इनके पत्रकारों के बारे में क्या सोचते हैं ?
नीरज वर्मा
सम्पादक
‘इस वक़्त‘
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