औघड़ और मुक्ति

देहबुद्धि नहीं-आत्मबुद्धि की ज़रुरत ! यह वाणी अघोर पथ में स्थापित व्यक्ति के गुण के संबंध में हमे सूचित करती है। परम पूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु की उपरोक्त वाणी से हमें औघड़ संत-महात्माओं की पहचान प्राप्त होती है। मित्रों इस वाणी को समझने हेतु हमे आत्म बुद्धि और देह बुद्धि को जान लेना आवश्यक है। यही वाणी हमारे समक्ष उस रहस्य से भी पर्दा हटाती है, जिसके अनुसार औघड़-अघोरेश्वर के भीतर मुक्ति की कामना के न होने का कारण मौजूद है।

समाज में  लोग अक्सर कहते थे, कि औघड़ों की मुक्ति नहीं होती । परंतु इस तर्क के पीछे की समझ से वो परे थे । वो इस समझ को विकसित करने में सक्षम नहीं थे कि …  औघड़ अघोरेश्वर का स्वयं का आत्मसंकल्प और आत्मबुद्धि सहित आत्मा में स्थित होना बिरला होता है जो स्वयं मुक्ति से भी कई पायदान ऊपर की बात है । एक कथा के माध्यम से आत्मबुद्धि और देहबुद्धि का अर्थ जान लें तो यह वाणी अपने पूर्ण रूप में हमारे समक्ष प्रगट हो जाती है। यह कथा विदेहराज जनक और आत्म स्थित बालक महात्मा अष्टावक्र की है। आइये पढ़ते हैं इस कथा का सारांश….

अष्टावक्र जब बारह वर्ष के थे तो एक बड़ा विशाल शास्त्रार्थ रचा था जनक ने । उन्होंने सारे देश के पंडितों को निमंत्रण दिया। एक नियम बनाया कि जो हारेगा उसे जल-समाधि लेनी पड़ेगी। बड़ा विवाद हुआ ! अष्टावक्र के पिता भी उस विवाद में गये। सांझ होते—होते खबर आई  कि पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे, मगर, वंदिन नाम के एक पंडित से हारे जा रहे हैं। यह खबर सुन कर अष्टावक्र भी राजमहल के क़रीब पहुंच गया। विवाद अपनी चरम अवस्था में था। निर्णायक घड़ी करीब आती गयी और अंततः अष्टावक्र के  पिता हार गए उन्हें जल समाधि लेनी पड़ी। अष्टावक्र राजमहल पहुंचे और भीतर जाने को लेकर कहने लगे। द्वारपालों ने वही कहा जो आजकल लोग कहते हैं….”इतनी कम उम्र के बालक हो वहां बड़े बड़े ज्ञानी बैठे हैं , तुम क्या शास्त्रार्थ करोगे”। पर बालक अष्टावक्र अड़ गए और एक बात ज़ोर से बोले….”आत्मा भी कहीं छोटी या बड़ी होती है, उसमें भी क्या घट बढ़ होता है, वो भी ज्ञानी या अज्ञानी होती है”। ये बात जनक ने सुना और भीतर बुला लाने का आदेश दे दिया।

अष्टावक्र दरबार में भीतर चला गया। पंडितों ने उसे देखा। महापंडित इकट्ठे थे ! उसका आठ अंगों से टेढ़ा—मेढ़ा शरीर ! वह चलता तो भी देख कर लोगों को हंसी आती। उसका चलना भी बड़ा हास्यास्पद था। सारी सभा हंसने लगी। अष्टावक्र भी खिलखिला कर हंसा। जनक ने पूछा….”और सब हंसते हैं, वह तो मैं समझ गया क्यों हंसते हैं, लेकिन बेटे, तू क्यों हंसा” ? अष्टावक्र ने कहा. ‘मैं इसलिए हंस रहा हूं कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है ! ये चमार यहां क्या कर रहे हैं?’

सन्नाटा छा गया ।.. चमार ! जनक ने पूछा….”तेरा मतलब” ? उसने कहा….”सीधी—सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखायी पड़ती है, मैं नहीं दिखायी पड़ता। मुझसे सीधा—सादा आदमी खोजना मुश्किल है, वह तो इनको दिखायी ही नहीं पड़ता; इनको आड़ा—टेढ़ा शरीर दिखायी पड़ता है। ये चमार हैं ! ये चमड़ी के पारखी हैं। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से कहीं आकाश टेढ़ा होता है ? घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फूटता है ? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा—मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ तो देखो! इससे तुम सीधा—सादा और कुछ खोज न सकोगे।”

यह बड़ी अदभुत बात थी, सन्नाटा छा गया। जनक प्रभावित हुआ, झटका खाया। निश्चित ही कहां चमारों की भीड़ इकट्ठी करके बैठा है । खुद पर भी पश्चात्ताप हुआ, अपराध लगा कि मैं भी हंसा।

बारह साल का लड़का था। शरीर को ही जो पहचानते हैं उनकी समझ-पहचान कितनी गहरी हो सकती है ? आत्मा के संबंध में विवाद कर रहे हैं, और अभी भी शरीर में रस और विरस पैदा होता है, घृणा, आकर्षण पैदा होता है ! मर्त्य को देख रहे हैं, अमृत की चर्चा करते हैं । राजमहल में हंसना पंडितों का और कहना अष्टावक्र का…. ! दो दृष्टिकोण ! जीवन में देखने की दो दृष्टियां हैं—एक आत्म—दृष्टि, एक चर्म—दृष्टि। चमार चमड़ी को देखता है। प्रज्ञावान आत्मा को देखता है।

मित्रों, कथा प्यारी है, बोधपूर्ण है, जगाने वाली है, झिंझोड़ने वाली है,बशर्ते आप जागने को तैयार हो । बशर्ते आप अपनी आंखें बंद करके अंधे विश्वास और अंधी श्रद्धा के साथ न हों। आप में  शास्त्रों को छोड़कर साधु-संत-बाबाओं के आभा-मंडल को परे हटाकर अपने विवेक का उपयोग करने का साहस हो तो आप इस कथा का हाथ थाम पूज्य महाप्रभु की वाणी के गूढ़ रहस्य को समझ पाएंगे। मित्रों, जिस व्यक्ति के भीतर अब भी देह और देह से जुड़े सुख और दुख के प्रति संवेदना बाकी है, वह आत्मबुद्धि का नहीं वह औघड़ नहीं। जो देह के सुखों से आसक्ति रखता है,जो इंद्रियों को ईंधन देता रहता है,जो भोग और ऐश्वर्य के सामान जुटाने में रुचि रखता है,जो अपने या अन्य के रूप पर मोहित होता है, जो बड़ाई मान सम्मान से प्रसन्न और आलोचना अपमान से उद्विग्न होता है,वह देहबुद्धि का है।जो दूसरे को खुद से कम समझता है, उसने न अपनी आत्मा का और न ही दूसरे की आत्मा को जाना है।

जो आत्मबुद्धि का होता है,जो आत्मा में स्थित होता है, उसे सब अपने ही आत्मस्वरूप दिखाई देते है, अतः उसके मन में  किस के लिए भी भेद भाव नहीं होता। जिसकी आत्मबुद्धि होती है, वह सभी को समान रूप से अपना ही स्वरूप मान उसी तरह व्यवहार करता है। वह हर हाल में प्रसन्नचित्त रहता है। झोपड़ी और महल में उसे कोई अंतर नही दिखता। सोना और मिट्टी में कोई अंतर नही होता। वह आत्मा की दृष्टि से ही देखता है, तथा उसी आधार पर अपना जीवन व्यतीत करता है। इसी अवस्था को औघड़,अवधूत,परमहंस कहा जाता है। जब कोई व्यक्ति आत्मबुद्धि का होता है, तो उसका देह का भान और देह का अभिमान दोनों ही नष्ट हो जाता है, और मुक्ति देह का विषय है आत्मा का नहीं । अतः आत्मस्थित व्यक्ति के लिए उसका कोई औचित्य नही होता क्योंकि वह देह में रहते हुए ही मुक्त होता है। अतः मुक्ति तथा मोक्ष जैसी धारणा देहबुद्धि की बातें हैं, आत्मबुद्धि वालों के लिए ये निरर्थक है ।

कमल शर्मा

रायपुर, छतीसगढ़

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