माँ तारा पुत्र- बामाखेपा

बामाखेपा 

अध्यात्म की कई शाखाऐं, सदियों से, दुनिया भर को आकर्षित करती रही हैं ! पर अध्यात्म की सर्वोच्च शाखा अघोर का संसार अद्भुत कहानियों से पटा पड़ा है ! अघोरी साधूओं की रहस्यमय व आश्चर्य में डाल देने वाली कहानियां और उनके मुख्य क़िरदार का सच्चा किस्सा कहीं-कहीं देखने और सुनने को मिलता है ! पूरी दुनिया में अघोर परम्परा के हेडक्वॉर्टर, बाबा कीनाराम स्थल, क्रीं-कुण्ड, के बारे में तो कई लोग वाक़िफ़ हैं, लेकिन इस (अघोर) परम्परा के कई संत ऐसे भी रहे हैं, जिनकी अतुलनीय आध्यात्मिक शक्तियों का लोहा पूरी दुनिया मानती है ! ये अलग बात है कि इस घोर वैज्ञानिक युग में इन बातों की चर्चा यदा-कदा ही होती है !  महान संत बामाखेपा/वामाखेपा भी एक ऐसी ही विभूति रहें हैं ! बंगाल के बीरभूम ज़िले के विख्यात शक्तिपीठ तारापीठ के नज़दीक अल्ता गाँव में संत बामाखेपा का जन्म हुआ था ! 1837 में जन्मे बामाखेपा की माँ का नाम राजकुमारी तथा पिता का नाम सर्वानंद चैटर्जी था ! आम बच्चों से हटकर, बामाखेपा, बचपन से ही अलग थे ! जहाँ आम बच्चे स्कूल में जाना और खेलना-कूदना पसंद करते थे, बामाखेपा भजन-कीर्तन और धार्मिक क्रिया-कलाप में व्यस्त रहते थे ! आर्थिक रूप से कमज़ोर माँ-बाप को बामाखेपा की ये आदतें पसंद नहीं थीं ! हालांकि उनकी माँ, उन्हें, अक्सर धार्मिक कहानियां सुनाया करती थीं ! उम्र जैसे-जैसे बढ़ती गयी, बामा का आध्यात्मिक अंतर्मन और ज़्यादा प्रबल होता गया ! इतना प्रबल कि बामा को  लोग अब बामाखेपा कह कर पुकारने लगे ! दरअसल बामाखेपा का नाम सिर्फ़ बामा था लेकिन उनकी छुपी आध्यात्मिक शक्तियों से उपजे उनके व्यवहार को देख कर लोगों ने उनके नाम, बामा, के साथ खेपा जोड़कर बामाखेपा कहना शुरू कर दिया ! खेपा का मतलब अमूमन लोग पागल या विक्षिप्त से ही लगाते थे ! और इस तरह से बामा अब बन गए बामाखेपा !

बामाखेपा और उनको समर्पित मंदिर 

उम्र थोड़ी और बढ़ी तो उनकी माँ को चिंता सताने लगी ! आर्थिक-अभाव से त्रस्त परिवार चाहता था कि बामा कुछ काम-धाम करें और घर को चलाने में अपना सहयोग दें ! इसी सोच के तहत उन्हें गाय-भैसों को चराने का ज़िम्मा सौंपा गया, मग़र, बामा अब पूरी तरह से अध्यात्म के रंग से सराबोर थे और माँ-तारा को ही हमेशा याद करते थे ! तारा पीठ का शमशान और माँ तारा का मंदिर ही उनका गंतव्य बन चुका था ! दूसरे लोगों के साथ-साथ अब बामा की माँ भी उन्हें खेपा (पागल) ही समझने लगी ! आख़िरकार उन्होंने अपने प्रिय-पुत्र को घर से बाहर जाने देना बंद कर दिया ! इसी दरम्यान किशोरावस्था में पहुंच चुके बामा के पिता का निधन हो गया ! माँ की ज़िम्मेदारी और बढ़ गयी थी, लेकिन बामा तो सिर्फ़ और सिर्फ़ माँ तारा के हो चुके थे ! देवी माँ तारा के प्रति उनका लगाव इस क़दर बढ़ चुका था कि घर की चारदीवारी को चकमा देकर, बामा, द्वारका नदी पार कर पहुंच गए, अपनी पारलौकिक माँ तारा के पास ! वहां उनकी मुलाक़ात हुई संत कैलाशपती बाबा से ! और वही बने जन्मजात संत बामाखेपा के उस भौतिक शरीर के गुरू ! यहीं से शुरू हुआ बामाखेपा की अघोर यात्रा का सफ़र ! उधर बामा के भौतिक शरीर की जन्मदायिनी माँ पुत्र की तलाश में भटकते-भटकते, बामा को खोज निकाली ! फ़िर से पुत्र को सांसारिक क्रिया-कलापों में बाँधने का यत्न किया ! पर माँ की ये कोशिश परवान नहीं चढ़ी ! बामा तो यक़ीनन माँ-तारा की भक्ति में “खेपा” हो चुके थे !
महान संत बामाखेपा का गंतव्य- “माँ तारापीठ मंदिर” में दर्शन करते श्रद्धालूगण 
बामा के बारे में जानकारी बताती है कि वो निर्वस्त्र रह कर पूर्णतः अघोरी वृति हालत में ही तारापीठ शमशान में रहा करते थे ! माँ-तारा का मंदिर और तारापीठ शमशान ही उनका घर बन चुका था ! सांप-कुत्ते-सियार उनके आस-पास ही रहते थे ! लोगों को भय भी लगता था, लेकिन, अब लोगों के ज़ेहन में एक बात साफ़ हो चुकी थी कि बामाखेपा एक अवतारी महापुरुष हैं ! कहा जाता है कि बामाखेपा की माँ-तारा के “पुत्र” के रूप में इस क़दर ख्याति हो चली थी कि माँ तारा के मंदिर में प्रसाद का भोग पहले बामाखेपा को चढ़ाया जाता था और फ़िर माँ-तारा को ! माँ-तारा की भक्ति में लीन बामा अपनी जन्मदायिनी माँ को भूल गए थे ? जी नहीं ! इसका पता इसी बात से चलता है कि जब उनकी माँ की मृत्यु हुई तो जिस समय बामा अपनी माँ के निर्जीव शरीर के पास पहुंचे, उस समय, घनघोर बारिश हो रही थी जबकि शमशान नदी के उस पार था ! नदी के एक पार घर तो दूसरी पार शमशान था ! लेकिन बामा अपनी माँ के निर्जीव शरीर को अपने कंधों पर रख कर नदी के उस पार शमशान ले गए ! कहा जाता है कि पूरे शमशान में बारिश हो रही थी, लेकिन, माँ-तारा के पुत्र बामा की उपस्थिति से ही उनकी जन्मदायिनी माँ की चिता पर बारिश की एक बूँद भी नहीं पड़ी ! परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि तेरहीं का भोज हो सके पर बामा ने सबको बुलाया और आश्चर्य की बात ये कि हज़ारों लोगों के भोजन करने के बाद भी भंडारा भरा पड़ा था ! बामाखेपा की चमत्कारिक ऐसी अनगिनत कहानियां हैं जो ये बतलाती हैं कि बामाखेपा एक संत मात्र नहीं बल्कि अवतारी अघोरी थे ! 1911 में तारापीठ में ही समाधिस्थ बामाखेपा जी की समाधि आज भी मौजूद है , जिसके दर्शन के लिए हर साल हज़ारों लोग यहां आते हैं !
नीरज वर्मा 
प्रबंध सम्पादक
“इस वक़्त”

2 Responses to माँ तारा पुत्र- बामाखेपा

  1. Rakesh sahni says:

    Suffering from sifli kaala jaadu with indrajaal..kali inside me eating my bones.neck abt to break..pls save me..poori sewa hogi.mere chote chote bacche hai.mobile 9717100362..urgently jaan bachani hai shayad ek hi din hai mere paas

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