ज़रा सोचिये – क़ौम या मुल्क़ ? 
12 दिसंबर 2019 को CAA  (Citizen Amendment Act) यानि नागरिकता संशोधन क़ानून लागू होने के बाद से देश भर के मुस्लिम बहुसंख्यक विश्व-विद्यालयों या महाविद्यालयों में इस क़ानून का विरोध ये कहते हुए हो रहा है कि ये क़ानून मुस्लिम-विरोधी है । ये क़ानून मुस्लिम-विरोधी कैसे है, कोई नहीं समझा पा रहा । हिन्दुस्तान का जो मुस्लिम नागरिक है, वो हमेशा भारतीय नागरिक रहेगा । इस बात को केंद्र सरकार और केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह कई बार बता चुके हैं । तो फ़िर सवाल इस बात कि इस क़ानून के विरोध में ये दंगा-फ़साद-आगज़नी किनके लिए ?
क्या इस देश का मज़हबी तबक़ा ये चाहता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान या अन्य मुस्लिम देशों से जो भी मुस्लिम यहां आए तो उसे यहाँ पर जगह दी जाए ?  CAA पर सबके लिए एक क़ानून की बात करने वाला यही मज़हबी समुदाय, समान क़ानून वाले, समान नागरिक संहिता का विरोध क्यों करता है ? पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफ़ग़ानिस्तान जैसे इस्लामिक देशों में हिन्दू-सिखों-जैन-ईसाईयों व् अन्य अल्पसंख्यक के साथ मारकाट-बलात्कार -धर्मपरिवर्तन पर यही मज़हबी समाज चुप्पी क्यों साधा रहता है लेकिन पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफ़ग़ानिस्तान के ‘अपने मज़हब’ के घुसपैठियों के लिए खुलेआम गुंडागर्दी करने पर उतारु है ?  क्यों ये वर्ग, पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमान, भाइयों के लिए भारत के अमन-चैन में ख़लल पैदा कर रहा ? आखिर, भारत का मज़हबी उन्माद, पाकिस्तान-बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमानों को भारत में क्यों बसाना चाहता है ? 
ये सवाल जायज़ है कि –क्यों ओवैसी जैसे कट्टर-मुस्लिम नेता के पीछे इन मज़हबियों की भीड़ बढ़ती जा रही है ? क्यों बदरुद्दीन अज़मल जैसे नेता इन मज़हबियों के पसंदीदा अक्स हैं ? क्यों मज़हब-विशेष बहुसंख्यक क्षेत्र में ज़्यादातर उसी मज़हब का उम्मीदवार जीतता है ? पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद के बढ़ते प्रकोप का ख़ुलकर विरोध, इस मज़हब द्वारा, क्यों नहीं किया जाता ? नब्बे के दशक में कश्मीर में जब हज़ारों-लाखों कश्मीरी पंडितों की बहन-बेटी की इज़्ज़त से छेड़खानी और गैर-,मुस्लिम धर्म से खिलवाड़ हो रहा था तो ज़रा-ज़रा सी बात पर उपद्रव मचाने वाले इन मज़हबी लोगों ने, इसका विरोध करने के लिए, सड़कों पर शांतिपूर्ण जुलूस तक क्यों नहीं निकाला ? आज हालत ये है कि बहुसंख्यक ग़ैर-मुस्लिम कश्मीरी अपने ही देश में शरणार्थी बन कर रह गए हैं, क्यों मज़हबी तत्व इस बात का जवाब, इंसानियत के आधार पर, नहीं देते ? क्यों लादेन और बग़दादी जैसे आतंकवादियों के ख़िलाफ़ हिन्दुस्तान का मज़हबी उन्माद ख़ुल कर सड़कों पर नहीं आया और न ही किसी क़िस्म का फ़तवा जारी किया ? क्यों भारत के मज़हबियों को  पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमानों से इतना प्रेम है कि वो इनको भारत में लाने के लिए यहां की सड़कों पर पत्थरबाज़ी और आगज़नी कर रहे हैं, जबकि भारत का मुसलमान, भारत का नागरिक है — ये साफ़ हो चुका है
 ये सारी बातें उस सवाल की तरफ़ फ़िर से इशारा करती हैं कि ज़्यादातर मज़हबी, मुल्क़ और क़ौम के चुनाव में क़ौम को ज़्यादा तवज़्ज़ो क्यों देते हैं ? मज़हब की तीमारदारी में बैठा ये वर्ग, ये, क्यों मान बैठा है कि भारत सहित दुनिया के हर एक देश में उसे घुसने और रहने की इजाज़त मिलनी चाहिए और उसके मज़हब के हिसाब से उसे छूट मिलनी चाहिए ? वो ये क्यों मान बैठा है कि किसी इस्लामिक देश में ग़ैर-इस्लामिक़ लोगों को अपने धर्म के हिसाब से छूट नहीं मिलनी चाहिए ?  ये क्यों मान बैठा है कि जहां भी मुसलमान ज़्यादा हो जाएं, वो जगह इस्लामिक़ मुल्क़ घोषित हो जाए या वहां पर इस्लामिक क़ानून हावी हो जाए ? ये मज़हब क्यों सोच के बैठा है कि – हमें आवाज़ सिर्फ़ अपनी क़ौम/मज़हब के लिए ही उठाना है ? ये क्यों मान बैठा है कि सिर्फ़ मज़हब और मज़हबी आगाज़ करने वाले असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग ही उसके नेता हैं ? ये मज़हब ये क्यों मान बैठा है कि कट्टरता और मज़हब के नाम पर आक्रामकता दिखाने का अधिकार सिर्फ़ एक क़ौम को ही मिलना चाहिए ? वो, ये, क्यों मान बैठा है कि हिन्दुस्तान में रहने वाले मुसलमान को जो अधिकार मिलता है , वही अधिकार सारी दुनिया के मुसलमानों को भारत में मिलना चाहिए ? ये क़ौमी वर्ग क्यों नहीं समझना चाहता कि जिस देश में वो रहता है , वो देश उसका है न कि किसी क़ौम-विशेष का ?
मज़हबी समुदाय में क़ौम के नाम, सरपरस्ती करने वाले — दंगा-फ़साद-बवाल करने वालों के ख़िलाफ़ खुलकर फ़तवा क्यों नहीं जारी करते और क्यों नहीं लोग इन बवालियों के ख़िलाफ़ ये मज़हबी ‘गुरु’ लोग ख़ुलकर सड़कों पर आते हैं ? इस मज़हबी समाज के अगुआ या नेता-धर्म गुरु इस समाज को ये क्यों नहीं समझाते कि “ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम- सबको सन्मति दे भगवान्” का नारा ही भाई-चारे की मिसाल पेश कर सकता है ? संख्या बल के आधार पर मनमानी करने का अधिकार किसी को नहीं है, लेकिन ज़्यादातर इस्लामिक देश इस बात को नहीं मानते , क्यों ? हर इस्लामिक देश में ग़ैर-इस्लामिक लोगों की संख्या में तेज़ी से गिरावट क्यों आ रही है, इस पर भी कोई मुस्लिम धर्मगुरु या मुस्लिम नेता कुछ नहीं बोलता ? क्या भाईचारे का सन्देश एक तरफ़ा होता है ? क्या एक ग़ैर-मुस्लिम द्वारा श्रद्धा-भाव से गोल टोपी पहननेऔर मुस्लिम समुदाय द्वारा चन्दन-टीका लगाने से मना कर देने से ही भाईचारा पनपेगा ? क्या ताली एक हाथ से बजती है ?
ये सवाल मासूम नहीं, बल्कि संज़ीदा हैं — क्योंकि–  मुल्क़ और क़ौम में से मुल्क़ को पहले पायदान पर बैठाने वाला ही, मुल्क़ का, सच्चा सिपाही होता है ? मसलन — 1984 में, कॉंग्रेस की सरकार में,  इंदिरा गांधी की हत्या के विरोध में, हज़ारों की संख्या में सिख समुदाय के लोगों का क़त्लेआम हुआ । बावज़ूद इसके सिख-समुदाय ने, इस ज़ख्म को भुलाकर, क़ौम की बजाय देश-हित को सर्वोपरि रखा । भाजपा को वोट न देने वाले मुसलमान समुदाय को मालूम होना चाहिए कि 1984 के बाद से सिखों ने कई बार कॉंग्रेस के पक्ष में मतदान कर पंजाब में कॉंग्रेस की सरकार बनवाया । हिन्दुस्तान का मज़हबी इस मुल्क़ को अपना मुल्क़ समझे, हिंदुस्तान का हर क़ौमी जागरुक होकर, देश और समाज के विकास के लिए, आगे बढ़कर नेतृत्व करे । हिन्दुस्तान का मज़हबी उन्माद, पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफ़ग़ानिस्तान के मुस्लिम भाइयों की बजाय हिन्दुस्तान के हिन्दू-मुस्लिम-सिख-जैन-ईसाई को अपना साझीदार माने । हिंदुस्तान का मज़हबी तबक़ा समझे कि – भारत का क़ानून पाकिस्तान या सऊदी की तरह मज़हबी नहीं है और न ही किसी किस्म की सख़्त मज़हबी-पाबंदी का हिमायती । CAA -विरोध के नाम पर, सड़कों पर होती, दुःसाहसिक हिंसा-आगज़नी इसकी गवाही देती है । यकीं मानिये, इस्लामिक देशों में ग़ैर-मुस्लिम — क़ौम के नाम पर इतनी हिम्मत करना तो दूर, ख़्वाब भी नहीं देख सकता
इसमें कोई दो-राय नहीं कि जिस देश में जो सैकड़ों-हज़ारों साल से रह रहा है , वो देश उसका है । ये बात क़ौम के आधार पर नहीं बल्कि भौगोलिक और क़ानूनी नज़रिये से समझी जानी चाहिए । साथ ही किसी भी घुसपैठिये को किसी भी देश में , ग़ैर-क़ानूनी तरीके से, घुसने या रहने का अधिकार नहीं रहना चाहिए । मुनासिब होगा कि इसे क़ानूनी नज़रिये से ज़्यादा समझा जाए, बजाय मज़हबी उन्माद के । समाज और राष्ट्र को समानता की अवधारणा पर ही काम करना चाहिए, अगर ऐसा नहीं होता है तो इस स्थिति में क़ानून का अपना रुतबा होता है । मज़हबी उन्माद को अपना जीवन समर्पित करने वाले या इसका फ़ायदा उठाने वाले लोगों को समझ में आना चाहिए कि, ये सिद्धांत — समानता की अवधारणा वाले भारत-अमेरिका-रुस-जर्मनी-इंग्लैण्ड-फ्रांस-जापान सहित सभी धर्मनिरपेक्ष देशों पर और असमानता की विचारधारा वाले इस्लामिक सऊदी-पाकिस्तान-अफगानिस्तान और बांग्लादेश सहित  सब पर लागू होता है।  मज़हब और धर्म के नाम पर खिलवाड़ करने का हक़ किसी को न मिले और न ही मज़हब या धर्म के नाम पर किसी देश की स्थापना का अधिकार । लेकिन, अफ़सोस, — दुनिया में आज कई मुल्क़ ‘इस्लामिक़ मुल्क़’ और ‘ईसाई मुल्क़’ के नाम से जाने जाते हैं और यहाँ के क़ानून, यहाँ के, मज़हब के आधार पर ही बने हैं । ये मज़हबी मुल्क़ अपने-अपने मज़हबी क़ानून के हिसाब से अपने मुल्क़ को चलाते हैं और, किसी भी ग़ैर-मज़हबी द्वारा, कहीं कोई दंगा-फ़साद नहीं होता । लेकिन हिन्दुस्तान एक ऐसा मुल्क़ बन गया है जहाँ एक क़ौम इस बात पर अड़ी है कि गैर-क़ानूनी तरीक़े से बाहर के मुल्क़ के ‘उनके मज़हब’ के लोगों को हिन्दुस्तान में आने और यहां की नागरिकता की इजाज़त मिलनी चाहिए
हिन्दुस्तान में एक क़ौम की ये ऐसी मांग है जिसके लिए सड़कों पर जमकर आगज़नी-पत्थरबाज़ी-हिंसा हो रही है । ये सब कुछ हो रहा है – मुल्क़ के हितों की बजाय मज़हबी-तरफ़दारी  करने के नाम पर । ऐसा न हो । मुल्क़ के वास्ते मज़हबी उन्माद बंद हो ।
आमीन !
नीरज वर्मा 
सम्पादक
‘इस वक़्त’

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