ब्रह्मचर्य क्या है ? भाग-1

“ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास की शक्ति से प्राप्त आनन्द
सभी  प्रकार के धन से महानतम और मूल्यवान होता है”

    परम पूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु

” सुधर्मा सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता है। वचन धन भी होता है,विश्वास-धन भी होता है, ताप धन भी होता है, सुषुप्ता-धन भी होता है, विवेक-धन भी होता है,शालीनता धन भी होता है, श्रध्दा-धन भी होता है, शील-धन भी होता है। इन सभी तरह के धन के साथ अच्छा धनवान, ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास करता है.वह देव को खरीदता है। धन की क्रय शक्ति से संसार के सभी रत्नों के पाने का जो आनंद होता है। ब्रम्हचर्य के साथ एकांतवास की शक्ति से प्राप्त आनंद उससे कहीं अधिक होता है। ”

पूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु ने हमें ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास की प्रेरणा दी ! आगे….

ब्रह्मचर्य – संसार के सुन्दरतम, रहस्यात्मक और अर्थपूर्ण शब्दों में से एक है। हिन्दू धर्म ने जगत को एक अमूल्य उपहार दिया इस शब्द के रूप में। ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत विराट है, परन्तु सदियों से चले आ रहे इस शब्द के साथ के साथ अनगिनत परिभाषाएं जुडती चली गयीं और आज ब्रह्मचर्य अपने क्षुद्रतम अर्थ को प्राप्त हो गया है। आज ब्रह्मचर्य का अर्थ है- यौन संबंधो का निषेध, विपरीत लिंगी के प्रति हमारी अनासक्ति, अनासक्ति ही नहीं घृणा। यह अर्थ कदापि हिन्दू धर्म का नहीं हो सकता। यह अर्थ बुध्द और महावीर के बाद प्रचलन में आया है । क्षमा सहित यह कहना चाहता हूँ कि, भारतवर्ष की साधुताई और आध्यात्म को पूरी तरह से तोड़ मरोड़ कर एक अलग ही रूप दे दिया, बौद्ध और जैन धर्म ने। मैं बुध्द या महावीर के ब्रह्मचर्य की बुराई नहीं कर रहा,उनका ब्रह्मचर्य भी अपने अर्थो में सहीं था, परन्तु वो उनके लिए सही था, जो उनके मार्ग पर चलना चाहते थे। गौतम बुध्द और महावीर भारतवर्ष के आध्यात्म को सही वैज्ञानिक दृष्टि देने वाले लोग हैं, परन्तु उनकी छाया और प्रभाव में हिन्दू धर्म के बहुत से सिद्धांतों ने अपने रूप को बदल लिया।

स्त्री जाति के प्रति अत्याचार और स्त्रियों को हेय दृष्टि का प्रतीक बना दिया ब्रह्मचर्य को। जिस देश के तंत्र विज्ञान ने स्त्री-जाति को परमात्मा की क्रिया-शक्ति के रूप में ईश्वर के अर्धांग रूप में स्वीकारा हो, उसी देश में स्त्री नरक का द्वार हो गयी, स्त्री की ओर देखना पाप हो गया, स्त्री को पशु कहा गया और ताडन के लायक कहा गया। महावीर ने कहा स्त्री मुक्त नहीं हो सकती, उसे मुक्त होने के लिए अगले जन्म में पुरुष के रूप में जन्म लेना होगा, बुद्ध ने शुरू में स्त्रियों को अपने संघ में जगह नहीं दी इसी भावना के कारण। जबकि ब्रह्मचर्य में स्त्री और पुरुष का कोई लेना देना ही नहीं है।

प्राचीन काल में ऋषि-मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, ऋषि पत्नियां भी बहुत जागृत और ज्ञानी होती थी। आत्म-साक्षात्कार का जितना अधिकार पुरुषो को था उतना ही स्त्रियों को भी था। आज तो स्थिति यह है कि वर्धमान महावीर जो विवाहित थे, उनके अनुयायी इस सच से इनकार करते हैं, जितना दूर कर सको स्त्री को उतना ही अच्छा। वाह रे तुम्हारा ब्रह्मचर्य ! ब्रह्मचर्य को पूर्ण गरिमा प्राचीन काल में ही मिली थी।

मैंने एक कथा सुनी थी, एक ऋषि ने अपने पुत्र को दुसरे ऋषि के पास सन्देश लेकर भेजा था, पुत्र ने पिता से कहा की राह में एक नदी पड़ती है, कैसे पार करूँगा। ऋषि ने कहा जाकर नदी से कहना,अगर मेरे पिता ने एक पल भी ब्रह्मचर्य का व्रत ना त्यागा हो, स्वप्न में भी नहीं, तो हे नदी तू मुझे रास्ता दे दे। कथा कहती है की नदी ने रास्ता दे दिया। कैसा विरोधाभास है, एक पुत्र का पिता और ब्रह्मचारी, परन्तु आज की परिभाषा से चलेंगे तो अवश्य विरोधाभास पर पहुंचेंगे, पर ब्रह्मचर्य की मूल भावना और अर्थ का अनुभव कर लेंगे, तो इस सत्य से आपका भी परिचय हो जाएगा।

मेरे विचार में ब्रह्मचर्य शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं, एक अर्थ तो इस शब्द में ही छुपा हुआ है, ब्रह्मचर्य- अर्थात ब्रह्म की चर्या । ब्रह्म की चर्या को अपने भीतर उतार लेना, अपनी चर्या को ब्रह्म की चर्या की तरह बना लेना ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म की तरह आचरण, व्यवहार और क्रिया कलाप ही ब्रह्मचर्य है।

शब्द कल्पद्रुम भी ऐसा ही कुछ कहता है।

“ब्रह्मणे वेदार्थंचर्यं आचार्नियम”

अर्थात ब्रह्म सा आचरण ही ब्रह्मचर्य है।

ब्रह्म अर्थात एक जहां दो की संभावना नहीं होती, सारा जगत ब्रह्म है ! जब  सब कुछ  वही एक है, तो  फिर  किसके  प्रति आसक्ति और आकर्षण। निर्विकार, निराकार, निर्विशेष में भेद की बात ही कहाँ , और जब भेद ही नहीं तो कौन स्त्री और कौन पुरुष। जहाँ जीव और ब्रह्म में भेद नहीं रह जाता, उस अभेद अवस्था का नाम ब्रह्मचर्य है।

कमल शर्मा

रायपुर , छत्तीसगढ़

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