उपनिषदों ने कहा है
“जगद्दृपद याप्ये तद्ब्रह्मैव प्रतिभासते
विद्या अविध्यादी भेद भावा अभावादी भेदतः”
इस जगत के रूप में ब्रह्म ही दिखाई देता है, विद्या-अविद्या भाव-अभाव आदि के भेद से जो भी दृष्टिगोचर होता है, वह ब्रह्म ही है। इसी तरह ब्रह्मचारी का अर्थ होता है जो नित्य ब्रह्मचर्य का सेवन करे, “ब्रह्मणि वेदे चरती इती ब्रह्मचारी “। प्राचीन काल में कहा जाता था, जो वेदान्त और ब्रह्म चिंतन में लीन रहता है, वही ब्रह्मचारी है। प्राचीन काल में कहीं भी स्त्री संग का निषेध नहीं किया गया है।
उपनिषदों में कहा गया है।
” कायेन वाचा मनसा स्त्रीणाम परिविवार्जनाम,
ऋतो भार्याम तदा स्वस्य ब्रह्मचर्यं तदुच्यते ”
अर्थात मन वाणी और शरीर से नारी प्रसंग का परित्याग तथा धर्म बुद्धि से ऋतू काल में ही स्त्री प्रसंग ब्रह्मचर्य है । अगर आप गृहस्थ हैं तो रितुबद्ध होकर स्त्री संग करते हुए भी आप ब्रह्मचर्य को प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि इन अर्थो में तो ब्रह्मचर्य ग्रहस्थो को ही प्राप्त है।पूज्य सरकार ने भी एक नारी व्रतधारी को ब्रह्मचर्य ही कहा है। प्राचीन काल में भी ब्रह्मचर्य का कोई सम्बन्ध काम वासना अथवा शरीर के किसी भी स्थिति में नहीं था। बुद्ध और महावीर के बाद हज़ारों युवक अपनी पत्नियों को घर को छोड़ कर भिक्षु बन गए , तब ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ स्त्री निषेध बन गया।
मेरे विचार में ब्रह्मचर्य का दुसरा अर्थ आज के प्रचलित अर्थ के आस पास ही है, परन्तु मेरी दृष्टि में ब्रह्मचर्य बाहर से आरोपित ना होकर हमारे अन्दर से ही प्रस्फूटित होता है।
हठयोग प्रदीपिका कहती है।
” मरणं बिन्दुपाते , जीवनं बिंदु धारणं ”
अर्थात वीर्य का पतन मृत्यु है , और वीर्य को धारण करना जीवन है।
ब्रह्मचर्य का जो दुसरा अर्थ है, उसका सम्बन्ध वीर्य के रक्षण, पोषण, उत्थान एवं ऊर्ध्वगमन से है। यहाँ भी मैं स्त्री का कोई निषेध नहीं देख पाता हूँ। यह बहुतों निजी विचार और अनुभव की बात है। वीर्यपात प्राकृतिक हो या फिर काम प्रसंगवश किसी भी रूप में नहीं होना चाहिए, परन्तु यह संभव नहीं दीखता क्योंकि आज का ब्रह्मचर्य थोपा हुआ है, आरोपित है, लादा गया है, आज ब्रह्मचर्य दमन से प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है।दमित काम वासना से उपजा ब्रह्मचर्य पानी का बुलबुला है, यह वो सूखी घास है, जिसे एक चिंगारी मिली और यह जल उठेगा। दमित भावनाएं, संवेदनाएं, विकृति बनकर बाहर आती हैं।
यही दमित ऊर्जा का परिणाम हमें आज आसाराम, रामरहीम, नित्यानंद और न जाने कितने जो अभी भी छुपे बैठे हैं, उनमे दिखाई दे रहा है।जब भी साधु आध्यात्मिक साधना अभ्यास और आत्माराम में रमण करने के बजाय बाहरी मायावी आकर्षणों में रमण करेगा तो अधोगति निश्चित है।ऊर्जा के रूपांतरण के लिए भोजन,छाजन और आध्यात्मिक नियम अति आवश्यक होते हैं।इसलिए अगर गृहस्थ ऋतुबद्ध हो जाता है,तो वह आध्यात्मिक उन्नति का पात्र बन जाता है और साधु अगर आध्यात्मिक नियमावली की सीमा रेखा को पार करने का प्रयास भी करता है तो पतन रूपी रावण उसके आध्यात्मिक तेज और ऊर्जा का हरण तत्काल कर लेता है।
ब्रह्मचर्य अज्ञात के मार्ग पर सरल सहज स्वाभाविक रूप से आपके भीतर प्रगट होता है, उसके लिए प्रयास करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। ब्रह्मचर्य भी अज्ञात के मार्ग में प्राप्त होने वाला धन है, जो आपको स्वतः मिलेगा स्वतः घटेगा स्वतः भीतर से प्रस्फूटित होगा। ब्रह्मचर्य वीर्य को धारण करना है, वीर्य का रक्षण करना है, वीर्य को अधोगति के विपरीत ऊर्ध्वगति देना है, अब यह अकेले हो या स्त्री के संग हो कोई अंतर नहीं पड़ता है।
अघोर संतो में यह कहावत प्रचलित है
“ भग बिच लिंग लिंग बिच पारा, जो राखे सो गुरु हमारा ”
अर्थात जो संभोगरत अवस्था में भी पारा (वीर्य) को राखे अर्थात धारण करे, उसे अधोगति अर्थात पतन की तरफ ना ले जाकर ऊर्ध्वगति की तरफ ले जाए याने उसे ऊपर चढ़ा दे , वही गुरु है, वही सच्चे अर्थो में ब्रह्मचारी है। यह तभी संभव होता है,जब क्रिया होती है, पर कर्ता कर्म से सम्बंधित नहीं होता है । वो उस क्रिया में अनुपस्थित होता है।
उपनिषदों में कहा गया है।
” वासनामुदयो भोग्ये वैराग्यस्य तदावधिः”
जब भोगने योग्य पदार्थ की उपस्थिति में भी वासना उदित ना हो, जब भोग भी वासना रहित हो , तब वैराग्य की स्थिति जानना चाहिए”।
कमल शर्मा
रायपुर , छत्तीसगढ़
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