ब्रह्मचर्य उस स्थिति का नाम है, जो देह में होते हुए भी विदेही हैं, जिसकी देहबुद्धी ऊपर उठकर आत्मबुद्धि में रूपांतरित हो गयी है, जो शरीर से ऊपर उठकर आत्मा में रमण करने लगा हो, वो ब्रह्मचारी है। वीर्य का रक्षण और ऊर्ध्वगमन ब्रह्मचर्य की प्रथम स्थिति है, परन्तु फिर कहता हूँ जबरदस्ती नहीं, स्वतः। वीर्य जब भी गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में नीचे की तरफ यात्रा करता है, तो वो अधोगति कहलाती है, और जब साधक की साधना के फलस्वरूप जब वीर्य पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होकर अधोगति नहीं ऊर्ध्वगति की तरफ यात्रा करता तब ब्रह्मचर्य घटता है। यह संभव है, बिलकुल उसी तरह जैसे पानी शुन्य तापमान से नीचे जाता है तो गुरुत्वाकर्षण का बल पाकर ठोस बर्फ बन जाता है, पर जब पानी गरम होता है और तापमान शुन्य से ऊपर उठता है, तो भाप बनकर ऊपर की तरफ उठने लगता है, गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। जिस तरह पानी की निचे की तरफ यात्रा उसे ठोस बनाती है , गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में ले आती है और ऊपर की तरफ यात्रा उसे भाप बनाकर गुरुत्वाकर्षण से मुक्त करती है, उसी तरह वीर्य की अधोगति मनुष्य को माया के प्रभाव में ले आती है , मृत्यु की तरफ और वीर्य की ऊर्ध्वगति उसे माया के प्रभाव से मुक्त करके जीवन अर्थात परमात्मा की तरफ बढ़ा देती है।
तंत्र मार्ग के पथिक मेरी इस बात का समर्थन करेंगे, कि कुल कुण्डलिनी जब जागती है, तो वासना का तूफ़ान हिलोरे मारता है, कुण्डलिनी मूलतः काम ऊर्जा ही है, अगर उसे ऊपर उठने का मार्ग नहीं मिलता है, तो वो दुसरे रूप में अपनी शक्ति को प्रवाहित कर देती है, सम्भोग की चरम अवस्था करीब करीब समाधि की तरह ही होती है, यह वो क्षण है जब आप अपनी काम ऊर्जा को ऊपर की तरफ गति दे सकते हैं। सामान्यतः अधोगति के फलस्वरूप वीर्यपतन हो जाता है, और काम ऊर्जा शांत हो जाती है। कुण्डलिनी जब ऊपर के चक्रों की तरफ आगे बढती है, तो वापस निचे उतर आती है। वासनाओं के प्रभाव में यह कुण्डलिनी बार बार निचे उतर आती है, परन्तु अगर यही कुण्डलिनी एक बार आज्ञा चक्र में प्रवेश कर जाए तो फिर वो वहां स्थिर हो जाती है और अगर साधक शक्ति दे तो ऊपर की तरफ बढ़ जाती है। आज्ञा चक्र में प्रवेश करते ही काम वासना विलीन हो जाती है, साधक काम से ऊपर उठ जाता है। तंत्र के पथिको ने आज्ञा चक्र में अर्ध नारीश्वर की कल्पना की है, यह कल्पना नहीं यथार्थ है, विज्ञान भी स्वीकारता है, की, हर स्त्री में एक पुरुष विद्यमान है और हर पुरुष में एक स्त्री।
जब साधक या साधिका की चेतना आज्ञा चक्र में प्रवेश करती है, जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र का भेदन करती है तो काम ऊर्जा राम ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती है, साधक जीव संज्ञा से शिव संज्ञा में प्रविष्ट हो जाता है। आज्ञा चक्र में पुरुष साधक को अपने भीतर की स्त्री का दर्शन होता है और स्त्री साधक को अपने भीतर के पुरुष का, जैसे ही यह दर्शन मिलता है, वैसे ही बाहर की स्त्री या पुरुष विलीन हो जाता है, खो जाता है। बाहर की स्त्री या पुरुष में रस ख़त्म हो जाता है, आप अपने भीतर के पुरुष या स्त्री को पा लेते हैं, और साथ ही आप आतंरिक या आध्यात्मिक सम्भोग के रहस्य को जान लेते हैं, जो पंचमकार का एक सूक्ष्म मकार है। यह बिलकुल उसी तरह होता है , जैसे खेचरी मुद्रा में साधक ललना चक्र से टपकने वाली मदिरा का पान करके आनंद में रहता है। जैसे ही आपको अपने भीतर का सौंदर्य मिलता है, बाहर का सौंदर्य खो जाता है ।संसार की स्त्री या पुरुष में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है, कोई रस नहीं रह जाता है, यही वो घडी है, जब ब्रह्मचर्य आपके भीतर से प्रस्फूटित होता है. अब आप वो नहीं रहे आप रूपांतरित हो जाते हैं, यही वो जगह है जहाँ शिवत्व भी घटता है । वासना विदा हो जाती है आपके जीवन से, यहाँ से आपके अधोगति की संभावना ख़त्म हो जाती है। यही वास्तविक ब्रह्मचर्य है।
अघोरेश्वर कह रहे हैं, इसलिए, ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास सबसे मूल्यवान है। ब्रह्मचर्य को धारण करेंगे तो धीरे धीरे आप एकांत को प्राप्त करेंगे, और ऐसी अवस्था में वास करना स्थिर हो जाना एकांतवास है, जो आपका सबसे मूल्यवान धन है।
मैंने मेरी छोटी बुद्धि से और अल्प ज्ञान से जो जाना वो लिखा आपसे सहमत होने कोई निवेदन नहीं बल्कि अगर असहमत हो या कुछ गलत लगे तो कृपया कमेंट के द्वारा मेरी गलतियों को बताने की कृपा करें।आप सब से भी आग्रह करता हूँ, इस वाणी से सम्बंधित अपने विचार अवश्य प्रगट करें।
ॐ श्री अघोरेश्वराय नमः।
।।एक अखंड कीनाराम,माँ गुरु अघोरेश्वर भगवान राम।।
कमल शर्मा
रायपुर , छत्तीसगढ़
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