“मैं ज़िंदा हूँ”

हिंदी साहित्य मर गया है या मरने के क़रीब है“, इंटरनेट के इस अति-आधुनिक युग में ये एक जुमला है । लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं जो इस बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते । गया सिंह, जैसे लोग, लेखनी से भरे ऑक्सीजन का सिलेंडर लेकर अब भी बैठे हैं और किसी भी क़ीमत पर साहित्य को अकाल मौत से बचाने की जुगाड़ में हैं । साहित्य की शक़्ल में वो कहते हैं- “मैं ज़िंदा हूँ” । जी हाँ, उम्र के सातवें दशक में चल रहे  डॉ. गया सिंह इसी फ़िराक़ में हैं । अपनी लेखनी और विश्वसनीय शोध के चलते राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात नामवर सिंह और काशीनाथ सिंह जैसे दिग्गजों के समकक्ष खड़े, गया सिंह, राष्ट्रीय स्तर पर उपेक्षित क्यों रहे , ये भी एक शोध का विषय है । आप बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से P.hd और वाराणसी के हरिश्चंद्र डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष रह चुके हैं । अक्खड़ बनारसी अंदाज़ में ज़िंदगी को मौत से अलग न देख पाने वालों में गया सिंह को अपना अक्स दिखता है । बहुत नामचीन न होने का रत्ती-भर भी उनमें मलाल नहीं । वो बेबाक़ है, बिंदास हैं, बेजोड़ हैं और शायद बे-लगाम भी । जी हाँ, गया सिंह कुछ ऐसे ही हैं । तमाम  सामाजिक-धार्मिक-अध्यात्मिक साहित्य के ज़रिये हिंदी साहित्य के सूनेपन को आज भी गुलज़ार करने की जुगत में लगे दिग्गज साहित्यकार डॉ. गया सिंह से ‘इस वक़्त’ के सम्पादक नीरज वर्मा की ख़ास बातचीत   …..

प्रश्न 1 :-  दुनियादारी के तिलिस्मी मायाजाल के बीच रहते हुए भी धर्म और अध्यात्म से लगाव या इसके गूढ़ पहलुओं को जानने की आदत कैसे पड़ी ?

उत्तर  :- देखिये, दरअसल आदत जो है, वो परंपरा से पड़ती है । जब आप जन्म लेते हैं तो अपने घर-परिवार-परिवेश का अध्ययन करते हैं और उस समय जो संस्कार पड़ जाते हैं  वो आपकी आदत बन जाते हैं । आदत की जगह मैं इसे संस्कार शब्द से सम्बोधित करता हूँ ।  ये स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है । इसे आप निकाल नहीं सकते । आपका संस्कार, आपके, घर-परिवार , सानिध्य, वातावरण या व्यक्तिगत रुचि के चलते भी निर्मित होता है । जिसके चलते अध्यात्म और धर्म जीवन का अंग बनते जाते हैं और अंततः आपके ही शब्दों में अब तो ये मेरी आदतों में शुमार हो गया है।

प्रश्न 2  :-  गूढ़ शोध व् लेखन का आपका ये सफ़र किन-किन पड़ावों से होकर गुज़रा ?   

उत्तर  :-  मेरा गाँव या जन्मस्थान चंदौली जिले के हिंगुत्तर ग्राम में पड़ता है और वही से महज़ कुछ दूरी पर, पूरी दुनिया में, अघोर परम्परा के आचार्य बाबा कीनाराम जी का जन्मस्थान रामगढ़ है । बाल्यावस्था में जब मैं पढ़ाई करता था तो कई लोगों के मुख से बाबा कीनाराम जी के बारे में चर्चाओं को सुनता था और ऐसा लगता था कि एक महामानव अपने कर्मों से हमें प्रभावित कर रहा है । फ़िर वाराणसी में उच्च शिक्षा ग्रहण करते हुए, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से P.hd. करने का अवसर मिला और साथ में बाबा कीनाराम जी सहित कई महान संतों को जानने का मौक़ा भी । सबके जीवन में कई पड़ाव आते हैं, लिहाज़ा मेरा जीवन भी अपवाद नहीं रहा । लोग अपनी-अपनी रुचि के मुताबिक़ कई पड़ाव पर रुकते हैं । कुछ पड़ाव पर थोड़ा ज़्यादा वक़्त बिताते हैं । अध्यात्म और धर्म को लेकर शोध की उत्कंठा और लेखन के तहत मुझे कई अध्यात्मिक और धार्मिक विभूतियों  का सानिध्य मिला । कई ज्ञानी व्यक्तियों का मार्गदर्शन मिला और बाबा कीनाराम जी जैसे संत की छत्र-छाया भी मिली । बस ऐसे ही कारंवा बढ़ता गया ।

प्रश्न 3 :- बतौर एक गंभीर शोधकर्ता और नामचीन लेखक, धर्म और अध्यात्म को आप कितना अलग मानते हैं  ? और किस तरह से ? 

उत्तर:- देखिये , जहां तक धर्म का सवाल है , ये आपके वाह्य-संस्कार को परिभाषित करता है, परिष्कृत करता है, सुसज्जित करता है, शोभित करता है । लेकिन अध्यात्म बहुत गहरा शब्द है । ये आपका आन्तरिक आभूषण होता है । अध्यात्म का सीधा ताल्लुक आपके अंतर्मन की स्थिति से होता है । अध्यात्म अनदेखा है लेकिन बुनियादी अनुभूति का हिस्सा होता है, गूढ़ होता है जिसके परिलक्षित होने में वक़्त तो लगता है, लेकिन वास्तवकिता के बोध बेहद का असल परिचायक होता है ।  धर्म प्रत्यक्ष है और सतही तौर पर जीवन को निर्देशित करने में सक्षम होता है । ये आपके संसार में रहने और उसके अंतर्गत निर्वाह के क्रम में आपसे जुड़ता है।  हालांकि कई मायनों में ये महज़ औपचारिक निर्वहन के क़रीब भी चला जाता है ।

प्रश्न 4 :-  भारत में संतों की एक लम्बी श्रृंखला चली आ रही है , उनमें किन संतों की कार्यशैली ने आपको प्रभावित किया और क्यों ?

उत्तर :- बड़ा चुनौतीपूर्ण सवाल है । अब मैं इसे सतयुग से शुरु करुँ तो उसमें आप विश्वमित्र और हरिश्चंद्र उल्लेखनीय हैं, त्रेता में वाल्मिकी को (मैं) लोकमर्यादा के साथ खड़ा पाता हूँ । तीसरे चरण में द्वापर में व्यास महत्वपूर्ण नज़र आते हैं। अब हम वर्तमान की तरफ बढ़ें तो बहुत सारे संत अपनी-अपनी मनोस्थिति, मर्यादा व् परिवेश के साथ नज़र आते हैं । लेकिन कीनाराम जी के रुप में एक ऐसा संत प्राप्त होता है, जो आपको प्रभावित करता है , जो जीवन और मृत्यु के बीच एकरुपता देखता है, जो शमशान की लकड़ी लाकर धूनी जला देता है जो हज़ारों-लाखों का अनवरत कल्याण करती नज़र आती है । बाबा कीनाराम जी की दृष्टि अभेद रही । बाबा कीनाराम जी ने हर चीज़ को समभाव से देखने की प्रेरणा दी है ।मनसा-वाचा-कर्मणा इसे धरातल पर उतारा । उनकी जो सबसे बड़ी सीख है कि आप अघृण हों यानि आप किसी से घृणा न करें । और यही कारण था कि अगर किसी संत ने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया तो वो हैं संत कीनाराम ।

प्रश्न 5:- अघोर-परम्परा को आप अध्यात्म में किस पायदान पर देखते हैं और क्यों ? 

उत्तर :- अघोर तो प्रथम पायदान का विषय है,  जहां से सारी धाराएं या शक्तियां निकल कर अलग-अलग मुक़ाम से गुज़रती हैं । अघोर का दूसरा नाम गंगा है । अघोर अभेद होता है , जहां किसी क़िस्म का भेद न हो । अघोर का मतलब होता अ +घोर – यानी जो घोर न हो, कठिन न हो, सरल हो और सहज हो । सहज होने के बारे में संत क़बीर ने कहा है कि – “काम-क्रोध-लोभ-मोह-ईर्ष्या-रागाग्नि से जो परे हट जाए, वही सहज है” । मतलब कि सहजता के धरातल पर सिर्फ़ अघोर ही उतरता है , लिहाज़ा ये स्वतः प्रथम पायदान का हक़दार बन जाता है ।
प्रश्न6  :- गुरु गोरखनाथ से लेकर शंकराचार्य-संत कीनाराम-वामाखेपा-संत क़बीर-रैदास-सूरदास-रविदास-तुलसीदास-गुरु नानक देव-तुकाराम सहित शैव-वैष्णव संतों की एक लम्बी श्रृंखला भारतवर्ष में चली आ रही है , लेकिन शैव-वैष्णव दोनों को अपने अंदर समाहित किये संत शिरोमणि बाबा कीनाराम जी के नाम से लोग आज भी ज़्यादा वाक़िफ़ नहीं रहे , इसका कारण ?

उत्तर :-  बाबा कीनाराम को लोग ज़्यादा नहीं जान पाए तो इसका सबसे बड़ा कारण, जो मैं समझता हूँ, कि — अघोर विषय को लेकर लोगों की नासमझी और इसके विकृत स्वरुप का चित्रण । इसके अलावा अन्य संतों को प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक के पाठ्यक्रम में जगह दी गयी जबकि बाबा कीनाराम के अद्भुत शिवत्व और उनके अविस्मरणीय योगदान के बावज़ूद उनको उपेक्षित कर दिया गया , जिस पर लेखकों और केंद्र या राज्य-सरकारों को ध्यान देना चाहिए था ।  इन सबके पीछे वजह ये रही कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल तुलसी को सामने लाए तो आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी क़बीर को सामने लाते हैं, सूरदास को डॉ. सुखदेव सामने लाते हैं । लेकिन इस कड़ी में कीनाराम को उपेक्षित कर दिया जाता है । ये कुछ विसंगतियां रहीं , जिनके चलते बाबा कीनाराम के नाम को लोग ज़्यादा नहीं हो जान पाए । लेकिन ये बीते दिनों की बात थी । जबकि स्वयं संत तुलसीदास मानते हैं कि संतों की परंपरा में संत कीनाराम शिरोमणी हैं। इसको स्पष्ट करते हुए तुलसीदास लिखते हैं कि — “चाहे कीन, करावे सोई” यानि “कीनाराम जो चाहते हैं वो कराते हैं” । आप की जानकारी के लिए बता दूँ कि 2004 में हम लोगों ने प्रयास किया कि संत कीनाराम को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए । हमारा ये प्रयास सार्थक रहा । इस पर कई और काम चल रहा है । आज की तारीख़ में संत कीनाराम के नाम से बड़ी संख्या में लोग वाक़िफ़ हैं ।

  प्रश्न7  :-  बाबा कीनाराम जी व् अन्य संतों के अध्यात्मिक व् सामाजिक योगदान को आप किस नज़रिये से देखते हैं  या क्या अंतर या समानता देखते हैं ? 

उत्तर :-  देखिये , यहां एक बहुत बड़ा अंतर है जिस पर बहुतों ने ग़ौर नहीं किया । अन्य संत, राजा-महाराजाओं या किसी क्रूर व्यवस्था से नहीं टकराए जबकि बाबा कीनाराम ऐसी व्यवस्थाओं से सीधा भिड़ जाते हैं । बाबा कीनाराम जी सिर्फ़ कविताओं या गद्य-पद्य बोल कर ही संत बने नहीं रहना चाहते, बल्कि मानवीय सेवा से शोषित को सम्बल देते हैं और और ज़रुरत पड़ने पर अपनी अविश्वसनीय        अध्यात्मिक चेतना को प्रत्यक्ष कर शोषणकर्ता को सुधारने का प्रयास करते हैं । ये बात आपको किसी और संत में देखने को शायद ही मिले । एक और अंतर आपको बता दें – कि – संत चाहें निर्गुण धारा के हों या सगुण धारा के , इन संतों की धारा अपने-अपने देवों की पूजा या भक्ति तक ही सिमट जाती है और कार्मिक आधार पर समाज से कोई ख़ास जुड़ाव नहीं होता , जबकि संत कीनाराम का पूरा जीवन ही समाज को समर्पित रहा । अब रहा बाबा कीनाराम जी के आध्यात्मिक योगदान- तो- ये समझ लें कि बाबा कीनाराम जी की अध्यात्मिक पराकाष्ठा को छूने वाला शायद ही कोई बिरला मिले । कहा भी गया है – “जो न करें राम, वो करें कीनाराम” । यानि विधि के विधान को भी बदल देने वाले संत कीनाराम । संत कीनाराम की अध्यात्मिकता और समाजिक सरोकार साथ-साथ है ।

प्रश्न 8 :-  बींसवीं सदी के महानतम संत अघोरेश्वर भगवान् राम उर्फ़ अवधूत भगवान् राम जी और उनके द्वारा स्थापित मानवीय सेवाओं को कैसे परिभाषित करना चाहेंगे ? 

उत्तर :-  बहुत अच्छा सवाल । विश्व-विख्यात संत, औघड़ भगवान् राम, गुरु-परम्परा में खड़े होते हैं । अपने गुरु बाबा राजेश्वर राम (बुढ़ऊ बाबा) की तरह, अवधूत भगवान् राम भी, दत्तात्रेय-परम्परा के ही संवाहक रहे । आप एक ऐसे संत, जिन्होंने  अघोर-परम्परा को जन-जन से जोड़ा । इस परंपरा के बारे में व्याप्त मिथ्याओं को दूर करने के लिए ,आपने, हर-संभव अमूल्य योगदान दिया । आधुनिक समय में अघोर-साहित्य सुगम और सरल तरीक़े से यदि आमजन को उपलब्ध होने की स्थिति में आया है , और इस-परम्परा के बारे में भ्रांतियां अगर दूर हुई हैं तो इसका श्रेय अवधूत भगवाम राम जी को ही जाता है । जहां तक उनकी मानवीय सेवा का सवाल है , तो वो अद्भुत और अनुकरणीय है । समाज के सबसे तिरस्कृत वर्ग, कुष्ठी-बंधुओं, की सेवा की मिसाल जो अघोररेश्वर भगवान् राम ने पेश की है , पूरी दुनिया में, वो बे-मिसाल है

प्रश्न9 :-  वर्तमान में अघोर-परम्परा का कैसा स्वरुप देखते हैं आप ?  

उत्तर :-  अघोर का वर्तमान साफ़-स्वच्छ स्वरुप जो जनता के सामने अब आया है उसे लाने का काम औघड़ भगवान् राम, जिन्हें लोग अघोरेश्वर महाप्रभु कहते हैं, ने किया । अघोरेश्वर महाप्रभु के प्रयास से अघोर का बहुत ही ख़ूबसूरत स्वरुप आज लोगों के सामने है । हालांकि कुछ लीचड़ और गंदे प्रकृति के लोग ,आज भी, डरावने वेशभूषा या लोगों को आकर्षित करने हेतु मुर्दे का मांस खाने जैसे घृणित कार्यों के ज़रिये समाज में भ्रम पैदा करने का कार्य कर रहे हैं । 

प्रश्न10 :- पूरी दुनिया में अघोर-परंपरा के हेडक़्वार्टर ‘बाबा कीनाराम स्थल, क्रीं-कुण्ड’ को दुनिया पुरे ब्रह्माण्ड का कंट्रोल रूम मानती है । डॉ. गया सिंह जी के नज़रिये से कैसे जाना जाय ?

उत्तर :-  इस बात को मैं कुछ ऐसे समझाऊं — एक बार यहां (‘बाबा कीनाराम स्थल, क्रीं-कुण्ड’) एक अंग्रेज मुझसे मिला और पूछा कि — “गिरनार कहाँ है ?” मैंने उस अंग्रेज से कहा कि — “गिरनार यही (‘बाबा कीनाराम स्थल, क्रीं-कुण्ड’) है “। जहां तक पूरे ब्रह्माण्ड का कंट्रोल रुम होने की बात है, तो, मैं कर्म की कसौटी के आधार पर इसे पूरे ब्रह्माण्ड का कंट्रोल रुम कहता हूँ ।  यहां पर आकर लगता है, जैसे आपको कोई कर्म करने की नसीहत दे रहा हो । और जब आप कर्म की कसौटी पर तौले जाने लगते हैं तो यही स्थान (‘बाबा कीनाराम स्थल, क्रीं-कुण्ड’) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नियंत्रक कहा जाने लगता है , क्योंकि कर्म ही तो मूल है । ऐसे में ये स्थान हर तरह से सर्वोपरि है ।

 प्रश्न11 :-   ‘बाबा कीनाराम स्थल, क्रीं-कुण्ड’ के वर्तमान पीठाधीश्वर अघोराचार्य महाराजश्री बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी की प्रासंगिकता व् अध्यात्म और अघोर परम्परा में बाबा सिद्धार्थ गौतम राम होने का मतलब क्या है ? 

उत्तर :-   बाबा सिद्धार्थ गौतम राम होने का मतलब ऐसे समझें —  कि इस पीठ के प्रथम पीठाधीश्वर बाबा कीनाराम ने 1770 में समाधि के वक़्त ख़ुद कहा था कि — “इस पीठ (‘बाबा कीनाराम स्थल, क्रीं-कुण्ड’) के ग्यारहवें (11वें) पीठाधीश्वर के तौर पर मैं स्वयं आऊंगा, बाल रूप में और उस समय पूर्ण जीर्णोद्धार और नवीनीकरण का कार्य संपन्न होगा” । तो, ये (बाबा सिद्धार्थ गौतम राम) वही कीनाराम हैं । इसके अलावा इस पीठ के पुनर्निर्माण या इसमें तोड़-फोड़ कर इसे नवीन व् बहुत ख़ूबसूरत स्वरुप देने का साहस किसी ने नहीं किया, चुना-पॉलिश कराना अलग बात है । इसके अलावा बाबा कीनाराम का जो आसन (इस परिसर में) मौज़ूद है , उस पर कीनाराम के बाद कोई नहीं बैठा और सब उनके पुनरागमन का इंतज़ार करते रहे और जब ये (बाबा सिद्धार्थ गौतम राम के नाम-रुप में) दुबारा आये हैं तो कई मौक़ों पर अपने इसी आसन पर विराजमान होते हैं । हज़ारों-लाखों लोग इस अद्भुत नज़ारे के गवाह बनते हैं ।

प्रश्न12 :-  आजकल देखा गया है कि अघोर-परम्परा के साधक-साधू ख़ुद बताते तो कीनारामी परम्परा का हैं मग़र अघोर बाबा कीनाराम स्थल और यहां के पीठाधीश्वर का ज़िक़्र करने से भी परहेज़ करते हैं , यानि गुड़ खाएंगे मगर गुलगुले से परहेज़ करेंगे ? इसके पीछे छिपे कौन से कारण हो सकते हैं ? 

उत्तर :-  सही कहा आपने । गुलगुला खाएंगे, गुड़ से परहेज करेंगे । ऐसे स्वार्थी व संकुचित  साधुओं को कैसे साधू माना जाय ! ये इसलिए अपने को अलग रखते हैं ताकि इन लोगों की ‘रोज़ी-रोटी’ चलती रहे । ऐसे साधुओं को आत्ममंथन की ज़रुरत है ।

प्रश्न 13:- अघोर-परम्परा में विश्वसनीय पुस्तकों का अभाव है, आप जैसे इक्का-दुक्का लोग ही हैं जिन्होंने इस खालीपन को भरने का प्रयास किया है , कारण क्या है ?

उत्तर :-  इसका  कारण, मैंने, पहले भी बताया कि संत कीनाराम को शैक्षणिक संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया जिसके चलते उनकी उपेक्षा हुई और लोगों ने ध्यान नहीं दिया । जब पठन-पाठन-शोध की प्रक्रिया नहीं चलेगी तो पुस्तकें कैसे लिखी जाएँगी ? लेकिन अघोर-परम्परा के जिज्ञासुओं को ये जानकार ख़ुशी होगी कि वर्तमान में क़रीब बीस से पच्चीस शोध, बाबा कीनाराम को केंद्र में रखकर, अघोर-परंपरा पर चल रहा है ।  और जब से हमने बाबा कीनाराम को अपने पाठ्यक्रमों में शामिल किया है तब से बड़ी संख्या में लोग इन्हें जानने-समझने का प्रयास कर रहे हैं । ये संख्या लगातार बढ़ रही है । और जब नयी पीढ़ी संत कीनाराम  का अध्ययन-शोध करेगी तो अपने-आप लोग, संत क़बीर और गुरु गोरख़नाथ की तरह, बाबा कीनाराम से भी अनजान नहीं रहेंगे ।

प्रश्न 14:- ज़्यादातर भारतीय लेखकों के साथ विदेशी लेखकों ने भी बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिख दी हैं, वो भी बिना अघोर के हेडक़्वार्टर (‘बाबा कीनाराम स्थल, क्रीं-कुण्ड’) या इसके प्रणेता (अघोराचार्य महाराजश्री बाबा कीनाराम जी) या यहाँ के वर्तमान मुखिया (अघोराचार्य महाराजश्री बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी) का उल्लेख किये बिना ?  क्या आप इस तरह का लेखन को विश्वसनीय मानते हैं ?

उत्तर :-  आप बाबा कीनाराम, अघोरेश्वर भगवान् राम या बाबा सिद्धार्थ गौतम राम या फ़िर ‘बाबा कीनाराम स्थल, क्रीं-कुण्ड’ का ज़िक़्र किये बिना (वर्तमान में या कभी भी) अगर आप किसी क़िताब को लिखते हैं तो उसका कोई मतलब नहीं रह जाता । न ही ऐसी पुस्तकों की कोई प्रासंगिकता है । अगर कोई विदेशी लेखक भारत की  सत्ता के बारे में लिखे और यहां के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री या यहां की संसद का ज़िक़्र भी न करे और पूरी क़िताब लिख दे तो उस क़िताब को आप क्या कहेंगे ? निःसंदेह ऐसी किताब हंसी या उपेक्षा का पात्र स्वतः बन जाएगी ।

प्रश्न 15:- डॉ. गया सिंह की ऐसी कौन सी क़िताबें हैं, जिसे पढ़कर आम आदमी को आध्यात्मिक-सामाजिक जिज्ञासा का समाधान ढूंढने में मदद मिल सकती है ? 

उत्तर :-  ऐसी बहुत सारी क़िताबें, मेरे द्वारा, समाज को अर्पित की गयी हैं । मसलन- ‘तुलसी काव्य की लोकतात्विक संरचना‘ , ये क़िताब ‘रामचरितमानस’ के रचयिता गोस्वामी तुलीदास पर है। इसके अलावा ‘गोदान से रेहन पर रघु‘,   ‘मध्ययुगीन भक्ति साहित्य का लोकतात्विक आधार‘, ‘ग्राम्य कथा के सेतु‘, ‘कीनाराम‘ , ‘दीयर  माटी का बबूल‘, ‘संतत्रयी‘, ‘हिंदी साहित्य के प्रमुख प्रातिभ व्यक्तित्व‘, ‘काँटों भरा गुलाब‘, ‘संस्कृति का लोकपक्ष‘ जैसी कई पुस्तकें भी पाठकों को प्रभावित कर सकती हैं ।
 

प्रश्न 16 :- अगर कोई शोधकर्ता या उत्सुक व्यक्ति अपने शोध को पूरा करना चाहे या अपनी जिज्ञासा का समाधान करना चाहे, तो, आपका किस तरह का मार्गदर्शन मिल सकता है ?  

उत्तर :-  बहुत ही अहम् सवाल पुछा आपने । इस सम्बन्ध में मैं कहना चाहूँगा कि अगर कोई अपने अंदर कोई प्रतिभा नहीं रखता तो भी उसे ज्ञान दिया जा सकता है, उसको जागृत किया जा सकता है । और जब वो जागरूक होगा तो उसके जीवन को, उसके अध्ययन को, उसके ज्ञानार्जन को आगे बढ़ाया जा सकता है । अगर कोई जिज्ञासु अपनी ज्ञानक्षुधा का समाधान करने में मुझे मार्गदर्शक की तरह देखना चाहता है तो मैं अपनी पात्रतानुसार उसका सहयोग करुंगा ।

 

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