राष्ट्रकवि का दर्ज़ा पाए, महान कवि , मैथिलीशरण गुप्त की एक कविता है — “हाय रे अबला तेरी यही कहानी , आँचल में है दूध और आँखों में पानी” ।
ये कविता बड़ी पुरानी है, मग़र है बड़ी प्रासंगिक । आज भी। मग़र मैं इस कविता के कारणों को आज भी खोज रही हूँ । जवाब का इंतज़ार है ।
मैं नारी सशक्तिकरण मामले पर अपनी भड़ास निकालने और मर्द की बराबरी करने के ढकोसले की बजाय खुद के औरत होने के मतलब को तलाशने और उचित अधिकार पाने की लड़ाई में भरोसा करती हूँ । मैं अपनी शारीरिक-आर्थिक-मानसिक पूर्ति को बराबरी का दर्ज़ा देने की मांग नहीं करती, बल्कि, मर्द की उस सोच के ख़िलाफ़ रहती हूँ, जिसमें वो सोचता है कि शारीरिक-आर्थिक-मानसिक पूर्ति उसका एकतरफ़ा अधिकार है और औरत उसकी अनुगामिनी । इसके अलावा, मैं, अपवादों की बात भी नहीं करती , क्योंकि … समाज का ताना-बाना या प्रभाव बहुसंख्यक वर्ग के आचरण से प्रभावित होता है, न कि अपवादों से । हाँ, कमज़ोर होने की स्थिति में अपवाद उदाहरण और ढाल का काम ज़रूर करते हैं और थोड़ी राहत भी प्रदान करते हैं ।
आज समाज में अनेकों ऐसे उदहारण देखने को मिलते हैं कि बाहरी तौर पर मज़बूत और तेज़तर्रार दिखने वाली कामकाज़ी महिलाएं भी घरेलू प्रताड़नाओं का शिकार होती हैं । इस प्रताड़ना का दायरा, शारीरिक-आर्थिक-मानसिक से लेकर , प्रत्यक्ष-परोक्ष न जाने कितना लंबा चौड़ा होता है । अब ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या वाकई ये औरत होने की नियति है या पुरुष वर्ग की दबंगई या हमारे समाज का असंतुलित ताना-बाना ? नहीं ? तो फ़िर इसकी जड़ कहाँ पर है ? आइए डालते हैं एक नज़र — दहेज़, हमारे समाज की घटिया परम्पराओं में से एक है । मग़र इसकी जड़ में जाएंगे तो इसमें भी अधिकतर मामलों में सास-ननद और ससुराल पक्ष का कुटिल चेहरा सामने आता है । सास-बहू का झगड़ा सम्भवतः प्राचीनतम झगड़ों में से एक है । सास-बहू के झगड़े में दोनों ही नारी हैं मग़र दोनों एक-दुसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में । कन्या-शिशु के जन्म पर सास के चेहरे पर मायूसी होना । एक माँ का अपने लड़के को अत्याधुनिक कॉन्वेंट में पढ़ाना और लड़की को फ़टेहाल सरकार स्कूल में दाखिला । इन सारी घटनाओं में पुरुष वर्ग का हस्तक्षेप निम्नतम रहता है । तो फिर सवाल ये कि इन वाक़यों का ज़िम्मेदार कौन ? वास्तव में, क्या नारी ही नारी की दुश्मन है ?
अब आते हैं मर्द-औरत के ताने-बाने पर । बलात्कार की ख़बरें और शिकायतें , लगातार अपना दायरा बढ़ा रही हैं । छोटी-छोटी बच्चियों से व्यभिचार, कोठों पर हज़ारों की संख्या में बेच दी गयी मासूम नाबालिग बच्चियां जो बतौर बाल-वेश्या, हर रोज़, कई मर्दों की हवस का शिकार बनती हैं । ऑफिस में बॉस नाम के प्राणी को ‘ख़ुश’ रखने का ज़ोखिम औरत के ज़िम्मे । शराब पीकर आदमी आए और बिना बात औरत की जमकर कुटाई करे, तो, वो पुरुष की दबंगई । बाहर पति मुंह मारे तो वो उसका पुरुषत्व और बेवफ़ाई की मारी औरत बाहर विकल्प तलाशे तो चरित्रहीन ? “औरत सिर्फ़ भोग की वस्तु है” ऐसा यकीं रखने वाला भी एक मर्द ही होता है । हर मर्द ऐसा नहीं होता लेकिन ऐसे मर्द सोसाइटी में कितने हैं , यहां विषय ये भी नहीं है । यहां मुद्दा है कि औरत के अबला होने का ज़िम्मेदार कौन है ? थोड़ी देर के लिए ही सही ,अगर, आप मेरी उपरोक्त बातों से सहमति जता लें , तो आपको लगेगा की आप किसी चक्रव्यूह में फंस गए हैं । आपको लगेगा कि पुरुषों को कोसने का पुराना नुस्ख़ा काम नहीं कर रहा । महीनों-सालों रज़ामंदी से पुरुष सहपाठी के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित रखने वाली औरत भी शादी न होने की स्थिति में बलात्कार की झूठी रिपोर्ट दर्ज़ कराने से बाज़ नहीं आती ! औरत के परेशान या अबला होने का कारण महज़ पुरुष वर्ग नहीं है । औरत भी औरत को परेशां करने में ख़ासी भूमिका निभाती है । यानि एक सही कारण नज़र नहीं आता । विकसित देशों में औरत-मर्द की बराबरी का मुद्दा कोई मुद्दा ही नहीं है, क्योंकि … अपवादों को छोड़ दें तो, वहाँ बराबरी पहले से ही है । लेकिन यहाँ एक बात ग़ौर करने लायक बात ये है कि वहाँ परिवार नाम की संस्था दम तोड़ चुकी है । तो क्या ये माना जाए कि औरत व् मर्द (ग़र) बराबरी के दर्ज़े पर आ जाएं तो परिवार नाम की शानदार संस्था के मर जाने का ख़तरा रहता है ? नहीं । ऐसा बिलकुल भी नहीं है । दरअसल विकसित मुल्क़ों में औरत-मर्द की बराबरी के दर्ज़े का कारण पारिवारिक संस्था का मरना नहीं है, बल्कि परिवार की जड़ें वहाँ कभी इतनी गहरी रही ही नहीं जितनी हमारे हिन्दुस्तान में है । हमारे देश में भी संयुक्त परिवार टूट कर (हम दो , हमारे दो वाली ) न्यूक्लियर फ़ैमिली में तब्दील हो चुके हैं , मगर नारी सशक्तिकरण का मुद्दा एक क्षेत्र-विशेष से निकलकर देशव्यापी हो चला है । यानि परिवार तो टूटे मग़र ‘नर-नारी एक बराबर’ का मामला आंदोलन के मोड़ पर पहुँच चुका है । यानि कोई एक ऐसा वर्ग नहीं है, जिस पर आप ये आरोप लगा सकें कि नारी के अबला होने में इसका हाथ है । अब ऐसे में एक ही सवाल सामने आता है कि बराबरी या असंतुलित तथा असंतोषजनक व्यवस्था के लिए किया क्या जाए ? या तो भीख माँगा जाए या फ़िर आचरण में सुधार के ज़रिये जायज़ हक़ की व्यवस्था की जाए । इस क़दम में पहले पायदान पर शिक्षा व्यवस्था है । ग़र माँ-बाप , बिटिया की, शादी की जल्दबाज़ी दिखाने की बजाय उसकी पूर्ण व् व्यवहारिक शिक्षा पर भी ध्यान दें तो काफ़ी हद तक तक लड़की का आत्मविश्वास मज़बूत हो जाता है । माँ-बाप लड़कों और लड़कियों में भेदभाव का सन्देश न देकर घर में समानता का वातावरण पैदा करें ताकि लड़के में अपने विशिष्ट होने का एहसास आने ही न पाए । माँ- बाप , अपने, बच्चों में शिक्षा के साथ, बड़ों की और औरतों की इज़्ज़त करने का संस्कार का भी भरें ताकी शिक्षा का मतलब पैसा कमाना और मौज-मस्ती करना भर न रह जाए ।
अब अगर बालिग़ व्यवस्था की बात करें तो औरत और मर्द एक-दूसरे की प्रेरणा बनें, मेरा मत इतना भर है । सास भी कभी बहू थी , इसे कोई भी सास और बहू, बतौर सीरियल भर न देखे बल्कि इस लाइन का मर्म भी समझें । ये रिश्ता कुछ कहलाता है को भी महज़ सीरियल के चश्मे से न देख, इसमें छिपे सन्देश को समझें । शारीरिक क्षमता और ज़िम्मेदारियों के मद्देनज़र, औरत-मर्द में भेद हो सकता है , मग़र मौक़ा बराबरी का मिलने पर दोनों के बौद्धिक स्तर में फ़र्क़ नहीं रह जाता ।
निजी तौर पर दिए गए, मेरे, इस मत से आप मतान्तर हो सकते हैं मग़र इन विचारों को अनदेखा करने की विचारधारा से आप सहमति नहीं जता सकते । ज़ाहिर है मेरी अभिव्यक्ति मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियों (हाय रे अबला तेरी यही कहानी , आँचल में है दूध और आँखों में पानी) को धुंधला करने में मदद करेगी ।
शिखा माथुर
जयपुर
(लेखिका पेशे से अध्यापक हैं और अक्सर ज्वलंत मुद्दों पर बेबाक़ी से अपनी राय रखती हैं)
Yhi to hum azzad to ho gaye pr Syd soch se ab bhi gulam hai aur pata nhi kb tk rahenge
Absolutely Correct.