देश के जाने-माने पत्रकार अरविन्द मोहन को पत्रकारिता-जगत से जुड़े, लगभग, सभी लोग जानते हैं ! साफ़-सुथरी छवि और मिलनसार अरविन्द मोहन नामचीन कहे जाते हैं पर इस “नामचीन” शब्द का सम्मोहन उन्हें आकर्षित करता है, इसमें संदेह है ! देश के प्रतिष्ठित मीडिया-संस्थानों में अपनी अहम् भूमिका निभाने वाले अरविन्द मोहन 1983 से पत्रकारिता-जगत में सक्रिय हैं और आज भी अक्सर टी.वी.डिबेट में अपनी राय रखते दिख जाते हैं ! “तब और अब” के इस फ़ासले के दरम्यां उन्होंने पत्रकारिता को बेहद क़रीब से देखा और समझा ! (कई मुद्दों पर) पेश है “इस वक़्त” के प्रबंध सम्पादक नीरज वर्मा की अरविन्द मोहन से, e-mail के ज़रिये, ख़ास बातचीत
(बाएं)बाबा कीनाराम जन्मोत्सव-2017 में और (दायें) बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ अरविन्द मोहन
सवाल1:- भारतीय पत्रकारिता में आप नामचीन कहे जाते हैं ! पत्रकारिता में शुरुवाती और आज-तक का सफ़र किन-किन मोड़ों से कैसे होकर गुज़रा ?
जवाब:- शुरुआत तो “दिनमान”, “इतवारी” पत्रिका और “सामयिक वार्ता” जैसी पत्रिकाओँ मेँ पत्र और छोटी रपटेँ लिखने से हुई. पूर्णकालिक काम 1983 मेँ “जनसत्ता” के प्रकाशन से शुरु हुआ. फिर हम कई लोगोँ ने 1986 मेँ यहाँ से निकल कर “इंडिया टुडे” हिन्दी निकालनी शुरु की जो हिट रही. 1995 से “हिन्दुस्तान” मेँ आ गया. इस बीच एक साल “बिडला-फेलोशिप” पर मज़दूरोँ के पलायन पर काम किया . हिन्दुस्तान तब लॉटरी वालोँ का अख़बार माना जाता था. उसे प्रभाष जोशी के जनसत्ता और राजेन्द्र माथुर वाले नभाटा के समांतर खड़ा करना एक चुनौती थी. पर यह काम हुआ और जब हमने 2006 मेँ हिन्दुस्तान छोड़ा तब यह अख़बार न सिर्फ एक गम्भीर और प्रभावशाली बन गया था बल्कि इसकी प्रसार संख्या भी काफ़ी हो गई थी. पर यहाँ की स्थितियाँ दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से मैनेजमेंट और युनियन ने ही बिगाड़ी. हिन्दुस्तान छोड़ने के बाद तीन साल तक “सीएसडीएस” मेँ चुनाव सम्बन्धी पढ़ाई वाली युनिट “लोकनीति” मेँ सम्पादक था. उसके बाद साल भर से कुछ अधिक समय “अमर उजाला” मेँ कार्यकारी सम्पादक रहा जो अतुल जी की मौत के बाद छोड दिया. इसी बीच “जागरण संस्थान”, “दिल्ली विवि” और “जामिया मिलिया” मेँ पत्रकारिता पढ़ाने लगा था जो ए.बी.पी. न्यूज की कंसल्टेंसी के साथ अभी भी कर रहा हूँ. इस बीच “गांधी के चम्पारण सत्याग्रह” पर अध्ययन किया और कई किताबेँ लिखीँ.
एक कार्यक्रम के दौरान अपने मित्रों के साथ अरविन्द मोहन
सवाल2:- तब और अब की पत्रकारिता शैली में कोई ख़ास अंतर ?
जवाब:- 35 साल मेँ हर चीज़ बदली है. पत्रकारिता भी बदली है. अब रिज़ल्ट अर्थात टी.आर.पी. और प्रसार-संख्या का आतंक बढा है. पर इससे तत्परता भी बढी है. कुछ चीज़ो मेँ हल्की गिरावट भी है. यह बाज़ार और शासन के बढ़ते दखल से है. पर इसका यह भी मतलब है कि 35 वर्षोँ मेँ पत्रकारिता की पहुंच और हैसियत बहुत बढ़ गई है. अब कोई, गांव और बस्ती, अख़बार या न्यूज़-चैनल की सीधी पहुंच से बचा न होगा-कम से कम मोबाइल से तो ज़रूर जुड़ गया है.
सवाल3:- प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विभाजन आप कैसे करना चाहेंगे ?
ज़वाब:- विभाजन की ख़ास ज़रुरत नहीँ है. इलेक्ट्रॉनिक ख़ासकर टीवी बहुत ताक़तवर है, पर ख़बर समेटने के मामले मेँ साधनहीन भी है. दिन भर मेँ एक-दो से ज़्यादा ख़बरें ढंग से नहीँ कर सकता. इसलिये एकाध ख़बर चुनकर उसी पर खेलता है जो अक्सर ऊब भी पैदा करता है. प्रिंट ने लोकलाइज़ेशन और सम्पादकीय पेज के माध्यम से खुद को बचाया है, फैलाया है.
टी.वी.डिबेट में हिस्सा लेते अरविन्द मोहन
सवाल4:- पत्रकारिता का पैमाना, अमूमन, निष्पक्ष माना जाता है ! पर आजकल ज़्यादातर मीडिया-हाउस एक पार्टी-विशेष की विचारधारा का पोषक माने जा रहे हैं , ख़ासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े ! कितने सहमत और असह्मत हैं, आप ? सहमति-असहमति का कारण ?
ज़वाब:- पत्रकारिता पूंजी, तकनीक और सत्ता से निरपेक्ष होकर नहीँ चलती- खासकर आज के ज़माने मेँ. इसलिये उसे इसी चश्मे से देखना होगा. इसलिये आज चैनलोँ या अख़बारोँ पर भाजपा का रंग चढा दिखता हो तो हैरान होने की बात नहीँ है-कल तक यही बात कांग्रेस के पक्ष मेँ लगती थी. पर अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतंत्र रहे तो इसमे सेल्फ-करेक्शन की क्षमता है. बहुत एक-तरफा हो कर मीडिया का काम नहीँ चल सकता.
सवाल5:- पहले लोग, ज़मीनी पत्रकारिता करते हुए, छोटे-छोटे शहरों से गुज़रते हुए , नेशनल मीडिया के नामचीन चेहरे बनते थे ! अब तो दिल्ली में ही पत्रकारिता की पढ़ाई करते हैं और यहीं किसी टी.वी. चैनल में जुगाड़ कर प्रवेश कर जाते हैं और दिल्ली में बैठे-बैठे बड़े पत्रकार का दर्ज़ा पा जाते हैं ! ये तो वही बात हुई कि बिना ज़मीन की खाक़ छाने, 4-5 सालों में, कोई राष्ट्रीय नेता कहलाने लगे ! ये कितना गलत और कितना सही है ? क्यों?
ज़वाब:- मीडिया का आकार-प्रकार जितना बढ़ेगा, उसमेँ, छोटे शहरोँ-गांवोँ का प्रतिनिधित्व मुश्किल होगा. पर किसी अन्य पेशे की जगह तत्काल रिज़ल्ट देने के चलते यहाँ किसी की प्रतिभा का अनादर असम्भव है. यही कारण है कि लगभग सारे मीडिया संगठनोँ के टॉप पर गांव या कस्बे के लोग ही शीर्ष पर हैँ.
सवाल6:- मीडिया में डिग्री और जुगाड़ इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि खांटी पत्रकारिता के मुरीद बियाबान में हैं और जुगाडू लोग शीर्ष पर ? किसे ज़िम्मेदार मानते हैं आप ? इसमें सुधार की कोई गुंजाइश या तरीक़ा बचा है ?
ज़वाब:- राजनीति समेत सभी केन्द्रीकृत व्यवस्थाओँ मेँ टॉप पर जाने की इंट्री मिलना मुश्किल है. उसमेँ सत्ता, पूंजी या तकनीक के उच्च स्तरीय ज्ञान से मदद मिलती है, पर टिकता और सफल वही होता है जिसमेँ इन तीनोँ को साध कर अपना मुख्य काम अच्छी तरह करना आता हो.
अलग-अलग कार्यक्रमों के दौरान अरविन्द मोहन
सवाल7:- मीडिया एक बिज़नेस भी है ! आज के दौर के हिसाब से तर्क तो सही है पर लोगों की विचारधारा को नुकसान भी पहुँच रहा है ! आख़िर बिना पैसा इकट्ठा किये कोई मीडिया हाउस निष्पक्ष कैसे रहे ? पैसा जो देगा वो तो अपनी मनमानी चाहेगा ही ! ऐसे में मीडिया-तंत्र या तथाकथित बड़े-पत्रकारों का कुनबा भ्रष्टाचार-मुक्त कैसे हो सकता है ?
ज़वाब:- मीडिया का व्यावसायिक मॉडल आज मार्केटिंग का सफल मॉडल है. मुफ़्त या कम से कम क़ीमत पर् पहला प्रोडक्ट देकर बाद मेँ पिछले दरवाजे या सर्विस के नाम पर मुनाफ़ा बटोरना. हमेँ भी सस्ता अखबार और मुफ़्त न्यूज़ चैनल देखने की आदत हो गई है. नव साक्षर और गरीबी रेखा से ऊपर आती आबादी इतने से ही प्रसन्न है. जब उसमेँ क्वालिटी की भूख जगेगी और वह क्वालिटी के लिये पैसे खर्च करने लगेगी, तब, क्वालिटी मेँ भी निश्चित सुधार होगा.
सवाल8:- टी.वी.मीडिया में ख़बरें, आमतौर पर, Delhi-NCR तक ही सीमित रहती हैं , ऐसे में नेशनल चैनल का टैग लगाए संस्थानों को किन पाबंदियों के तहत लाना चाहिए कि वो “राष्ट्रीय-ख़बरों” से सरोकार रख सकें ? जैसे 30% खबर Delhi-NCR से तो 20% साउथ से, 20% पश्चिम-भारत से , 20% नॉर्थ-ईस्ट से….बाकी जगहों की ख़बरें भी ?
ज़वाब:- टीवी की सीमा का ज़िक्र पहले हुआ है. इसी चलते टीवी केन्द्र, जो संयोग से सत्ता, पूंजी और तकनीकी कौशल के केन्द्र भी हैँ, के पास की ख़बरें ज़रुरत से ज़्यादा महत्व पाती हैँ.
सवाल9:- कुछ बड़े मीडिया-संस्थानों की मोनोपोली होती जा रही है ! कई बड़े अखबार और टी.वी.हाउस कई संस्करण और ज़्यादा संख्या में चैनल्स का लाइसेंस लेकर बैठे हैं ! लोकतंत्र में, विचारधारा और छोटे संस्थानों के मददेनज़र इसे आप ख़तरनाक मानते हैं या “आम-बात” ? क्यों और कैसे ?
ज़वाब:- मोनोपोली गम्भीर मसला है. दुनिया भर मेँ हो रहा है. सरकारोँ को भी कुछ करना होगा वरना कई मीडिया हाउसोँ की ताकत सरकार से ज़्यादा होगी, तो, दूसरी परेशानियाँ पैदा होंगी. कई छोटे देश ऐसा महसूस कर भी रहे हैँ.
अलग-अलग सम्मान समारोह के दौरान अरविन्द मोहन
सवाल10:- सोशल-मीडिया भी अब एक ताक़त के तौर पर उभरा है ! ऐसे में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए कोई ख़तरा (आने वाले सालों में) आप महसूस करते हैं ?
ज़वाब:- सोशल मीडिया, टाइम और स्पेस के बन्धन से ऊपर है जो सामान्य मीडिया की लक्ष्मण रेखा रहे हैँ. इसके हटने से वहाँ बहुत आज़ादी दिखती है- आजादी उच्छृंखलता की हद तक है. यह चीज़ उसकी भी सीमा बनेगा. पर खबरोँ और विचारोँ मेँ परस्पर सहयोग भी है जो बढ़ेगा.
सवाल11:- भाजपा राज में पत्रकारों के दमन की बात अक्सर होती है, कॉंग्रेस का राज कैसा रहा, पत्रकारों के लिए , ख़ासतौर पर तब जब कॉंग्रेस के ऊपर इमरजेंसी का कलंक भी है ?
ज़वाब:- भाजपा और कांग्रेस और कम्युनिस्ट मेँ ख़ास फ़र्क नहीँ है. बल्कि कल कम्युनिस्ट-राज हो तो वे भाजपा से भी आगे निकल जाएंगे. यह एक तो सत्ता का चरित्र है और दूसरे संगठित और लोकतांत्रिक या बेपरवाह राजनीति का. इसीलिये आज कांग्रेस अच्छी लग रही है.
सवाल12:- “इस वक़्त” के ज़रिये आपकी ऐसी कोई बात, जो मीडिया-हाउस या नयी पीढ़ी के, पत्रकारों के लिए सकारात्मक हो, समाज और राष्ट्र-हित के नज़रिये से ?
ज़वाब:- पत्रकारोँ के हिस्से ज्ञान बढ़ाना और सिंसियर होकर काम करना है. सूचना और तथ्य ही उनके लिये ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैँ. सौभाग्य से आज सूचना का प्रस्फोट का दौर है. इसलिये उन्हें इधर-उधर की बात करने की जगह ज़्यादा से ज़्यादा ज्ञान जुटाने और गम्भीर होकर काम करने की जरूरत है.
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