पुलिस वाले की आध्यात्मिक पारी – ‘जय गिरनारी’

उनसे अक्सर बात होती रहती है । उत्तर-प्रदेश के तेज़तर्रार और राष्ट्रपति पदक से सम्मानित वो बेहद कर्मठ पुलिस अधिकारी हैं । शायद बेहद कड़क भी हैं । नाम समरजीत सिंह ‘विशेन’ । एक दिन उनका व्हाट्सऐप आया । देखा तो उसमें किसी ‘पुस्तक विमोचन’ समारोह की फ़ोटो थी । मैंने सोचा कि शायद होगी किसी की । मगर पता चला कि ये पुस्तक इन्हीं पुलिस अधिकारी द्वारा लिखित है । मैंने उत्सुकता ज़ाहिर की तो अगले ही दिन उनसे घर पर मुलाक़ात भी हो गयी और किताब भी हाथ लग गयी – नाम — ‘जय गिरनारी‘ । उन्होंने भेंट किया तो मैंने बतौर पत्रकार उनसे समीक्षा के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि “ग़र ईमानदारी से समीक्षा हो सकती है तो आपके इस क़दम का मैं स्वागत करूंगा” । मैंने भरोसा दिलाया , उन्हें यकीं हो गया । घर आया और क़िताब पलटा तो किताब में था विशुद्ध अध्यात्मिक विवरण । दिमाग चकरा गया कि एक तेज़-तर्रार पुलिस अधिकारी और आध्यात्मिक सरोकार ?

ऐसे भी किसी क़िताब की समीक्षा आसान नहीं होती, ख़ासतौर पर अध्यात्म पर आधारित । लेकिन बचपन से ही अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था यानि अघोर-परम्परा में रुचि रहने के चलते मुझे इस क़िताब को पढ़ने में रुचि जागी । पढ़ा तो मज़ा आया । मज़ा इसलिए कि बाकी आध्यात्मिक किताबों की तरह इसमें गूढ़ ज्ञान-विज्ञान की बोझिल चर्चा नहीं की गयी है , बल्कि लेखक ने इसे बतौर जिज्ञासू पर्यटक की तरह पेश किया है
लगातार 24 दिन की आध्यात्मिक यात्रा पर आधारित इस क़िताब में लेखक ने शोध के ज़रिये ये बात सामने लाने का प्रयास किया है कि भगवान् आदि-गुरु दत्तात्रेय के 24 गुरु हुए हैं और लेखक की ये यात्रा भगवान् दत्तात्रेय की प्रेरणा से ही शुरू और संपन्न हुई । आदि-गुरु भगवान् दत्तात्रेय के आकर्षण और उन्हीं को केंद्र-बिंदू में रखकर लिखी गयी ‘जय गिरनारी’ की शुरुवात 10 अगस्त 1999 को होती है । लेखक अपने 1-2 मित्रों और मार्गदर्शकों के साथ, 4 पहिया वाहन द्वारा भगवान् शिव की नगरी काशी यानि वाराणसी से 24 दिन की आध्यात्मिक यात्रा की शुरुवात करते हैं । पहला पड़ाव होता है प्रयाग । प्रयाग पहुंचकर लेखक को बताया जाता है कि काशी से गंगाजल बाहर लेकर नहीं जाते हैं , ऐसे में लेखक द्वारा काशी से लाया गया गंगाजल वहीं प्रयाग के संगम में प्रवाहित कर क्षमाप्रार्थना कर ली जाती है ।

इसके बाद लेखक और उनका कारंवा कानपुर, फ़िरोज़ाबाद, आगरा होते हुए राजस्थान की सीमा में धौलपुर में प्रवेश करते हैं और राजस्थान के ऐतिहासिक शहर करौली स्थित विख्यात कैला देवी का दर्शन लाभ लेते हैं । राजस्थान में भ्रमण के दौरान लेखक और उनकी टीम आध्यात्मिक लाभ के साथ-साथ ऐतिहासिक ज्ञान हासिल करने की भी कोशिश करती है, चाहे वो चित्तौड़गढ़ का क़िला हो, उदयपुर का मेवाड़ शासकों द्वारा निर्मित भगवान् शिव एकलिंग जी मंदिर या फिर विश्व-प्रसिद्ध नाथद्वारा मंदिर हो या फ़िर महाराणा प्रताप और अकबर के बीच भीषण युद्ध का गवाह बना ऐतिहासिक हल्दी घाटी का मैदान । हर वृत्तांत को लेखक ने बड़े ही संजीदा तरीक़े से पंक्तिबद्ध किया है । माउंट आबू के प्रसिद्द अचलेश्वर महादेव का ज़िक़्र करते हुए लेखक ने स्कंद-पुराण की उन दो पंक्तियों का उल्लेख किया है जिनके मुताबिक़– “वाराणसी शिव की नगरी है तो माउंट आबू भगवान् शंकर की उपनगरी” । माउंट आबू में ही लेखक और उनकी टीम, दिलवाड़ा जैन मंदिर और माउंट के उच्चतम शिखर यानी गुरु-शिखर भी पहुँची । गुरु शिखर पर पहुंचकर लेखक को जानकारी हुई कि सद्गुरु दत्तात्रेय जी ने यहां 5000 साल तपस्या की थी । माउंट आबू में इस टीम को अम्बा जी माता की दर्शन लाभ हुआ । पता चला कि माता का वक्ष-स्थल यहां गिरने के कारण इस मंदिर को शक्ति पीठ का दर्ज़ा भी हासिल है ।

राजस्थान के बाद लेखक का कारंवा गुजरात राज्य की सीमा में प्रवेश कर गया था । गुजरात के पाटन शहर के सिद्धपुर नामक स्थान के बारे मेंअद्भुत जानकारी देते हुए लेखक ने इस क़िताब में बताया है कि – ” पूरी दुनिया में ये एकमात्र स्थान है जहां पुत्र अपनी जननी यानि माता के मोक्ष हेतु कार्तिक माह में आकर पूजा-अर्चना और कर्म-काण्ड करता है ” । पाटन से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही ‘जय गिरनारी’ की टीम पहुँचती है- मोधेरा का सूर्य मंदिर पर । ये सूर्य मंदिर तीन सर्वाधिक प्राचीन सूर्य मंदिरों में से एक है । इसके बाद राजकोट होते हुए ये टीम, भगवान् कृष्ण की नगरी, द्वारिका पहुँचती है । यहां विश्व-विख्यात द्वारिकाधीश मंदिर का दर्शन करने के पश्चात ‘जय गिरनारी’ की टीम ज्योतिर्लिंग नागेश्वर महादेव का भी दर्शन लाभ लेती है । इसके बाद लेखक की टीम गुजरात के कई शहरों से होती हुई तथा रुक्मिणी देवी मंदिर, राजकोट मंदिर, गिर लॉयन नेशनल पार्क इत्यादि जगहों से होती हुई पहुँचती है अपने गंतव्य और इस क़िताब ‘जय गिरनारी’ के केंद्र-बिन्दु यानि जूनागढ़ स्थित गिरनार पर्वत पर । यहां दत्त-शिखर पर भगवान् दत्तात्रेय पादुका और टीला के साथ , लेखक और उनकी ‘जय गिरनारी’ टीम को गोरख टीला और अघोरी टीला के दर्शन का लाभ भी मिला । इनके बारे में बताते हुए लेखक ने कहा कि – ” इस जगह बीच में दत्त पर्वत (टीला) और अगल-बगल अघोर व् नाथ टीला है । अघोर टीला बाबा कीनाराम जी से जबकि नाथ टीला गुरु गोरखनाथ जी सम्बंधित है ” । इन जगहों पर लेखक को कुछ गुप्त आध्यात्मिक विभूतियों से भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ । लेखक के ही शब्दों में — ” गिरनार का आदि-गुरु से सम्बंधित ये स्थान आज भी अद्भुत-आलौकिक व् अविश्वसनीय है ” । इसके बाद लेखक की टीम गुजरात से निकलकर महाराष्ट्र व् मध्य प्रदेश के कई मंदिरों व् ज्योतिर्लिंगों तथा अद्भुत स्थानों का दर्शन-लाभ हासिल करती हुई , ठीक 24 दिन बाद, बाद उसी स्थान पर आकर अपनी यात्रा को काशी में उसी जगह समाप्त करती है , जहां से 24 दिन पहले ये शुरू हुई थी ।

‘जय गिरनारी’ की ख़ास बात ये है कि इसे लेखक ने बेहद सामान्य शब्दों में व् जीवंत तरीके से लिखा है । इसमें कुछ ऐसी गूढ़ आध्यात्मिक बायतों व् धार्मिक क्रिया-कलापों का ख़ुलासा किया गया है , जो (सम्भवतः) आम आदमी नहीं जान पाता है । लिखने का तरीक़ा ऐसा कि मानो कोई इस तरह ऑडियो कॉमेंट्री कर रहा हो जैसे वीडियो भी उसके साथ चल रहा हो । 20 साल पहले की इस यात्रा को आज के सन्दर्भ में देखा जाएं तो ये आज भी प्रासंगिक है । क्योंकि आध्यात्मिक धारणाओं और स्थानों को पौराणिक क़रार देने में हज़ारों साल का समय लगता है , लिहाज़ा 20 साल पहले की इस अध्यात्मिक यात्रा का मूर्त स्वरुप आज भी वही है ।

चूंकि इस क़िताब के केंद्र बिन्दु आदि-गुरु भगवान् दत्तात्रेय हैं और दत्तात्रेय जी से अघोर-परम्परा का नज़दीकी नाता रहा है । लिहाज़ा लेखक ने इस किताब का विमोचन भी , दुनिया भर में अघोर-परम्परा के ईष्ट-अधिष्ठाता-मुखिया-आराध्य, ‘बाबा किनारा स्थल, क्रीं-कुण्ड’ के पीठाधीश्वर अघोराचार्य महाराजश्री बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी से कराया ।

कुल मिलाकर , अध्यात्म-धर्म और इतिहास प्रेमियों को ये क़िताब बहुत पसंद आएगी । हालांकि पसंद और ना-पसंद बेहद निजी मामला है और सबका अपनी पसंद पर सर्वाधिकार सुरक्षित है । लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि बिना पढ़े या जाने, पसंद या नापसंद का पैमाना तय करना उचित नहीं है । ज़ाहिर है, इसे पढ़ने के बाद आपकी राय मुझ से इत्तेफ़ाक़ रखने / न-रखने का हौसला पा जाएगी

नीरज वर्मा
सम्पादक
‘इस वक़्त’

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