उत्तर-प्रदेश का एक जिला है सोनभद्र । आदिवासी बहुल ये जिला अपने प्राकृतिक संसाधनों और अनगिनत इंडस्ट्रीज़ के लिए पूरे हिन्दुस्तान में जाना जाता है । मग़र आप ये न सोचें कि ये जिला बड़ा अमीर और ख़ुशहाली की दास्ताँ लिख चुका है । चौंकाने वाली बात ये है कि बड़ी संख्या में स्थापित इंडस्ट्रीज़ और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के बावज़ूद ये जिला ग़रीब और बदहाल है । घोर-आदिवासी संख्या वाले इस जिले में सुविधाओं के नाम पर मामला सिफ़र है । यहाँ के पैसे वाले लोग, शिक्षा-चिकित्सा-बड़ी ख़रीददारी के लिए, क़रीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर, वाराणसी (बनारस) जिले का मुंह देखते हैं । लेकिन यहां कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस घोर-आदिवासी इलाक़े को हर तरह से गुलज़ार रखने की कोशिश में जी-जान से जुटे हैं । इसका उदाहरण देखने को मिला इस जिले की दुद्धी तहसील के म्योरपुर नामक ब्लॉक में ।
आप सोनभद्र के रेणुकूट स्टेशन या बस स्टैंड पर उतर कर जब रेणुकूट से अम्बिकापुर रोड की तरफ़ मुड़ेंगें तो क़रीब 17-18 किलोमीटर के बाद, दाहिने हाथ पर, आपको एक बोर्ड दिखाई देगा , जिस पर लिखा होगा —– ‘माँ मैत्रायिनी योगिनी इंटरमीडिएट कॉलेज- म्योरपुर, सोनभद्र (ऊ.प्र.)‘ । अंगरेजी के संक्षिप्त रूप में इसे आप MMYIC कह सकते हैं । कभी घने जंगलों का हिस्सा रहा ये स्थान , आज भी, बहुत चहलक़दमी करता नहीं दिखता । रात्रि के समय तो शायद आप हिम्मत भी न करें यहां आने की । फेसबुक-व्हाट्सएप के ज़रिये समाज-सेवा के लिए प्रवचन बांटना बड़ा आसान होता है …. किसी फ़िल्म में निःशुल्क काम कर रहे नायक-नायिका के डायलॉग की तरह । मग़र जब आप इसे धरातल की कसौटी पर उतारेंगे तो ये पग-पग छट्टी का दूध याद दिला देगा । ये बता देगा कि इन इलाक़ों में समाज सेवा या शिक्षा का विस्तार करना पहाड़ तोड़ने से लेकर नदी बनाने की कहानियों से अलग नहीं है । ऐसे में आपको हिम्मत देनी होगी यहां के व्यवस्थापकों और सेवा-भाव से ओत-प्रोत अध्यापकों और अन्य सेवादारों की जो इस जैसी क़रीब-क़रीब वीरान जगह पर घोर-आदिवासी अंचल के बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाए हुए हैं ।
आदिवासी अंचल के इस इलाक़े में शैक्षणिक दिया जलाने की पहल हुई 1996 में और इसी पहल के तहत नींव पड़ी …. ‘माँ मैत्रायिनी योगिनी इंटरमीडिएट कॉलेज- म्योरपुर, सोनभद्र (ऊ.प्र.)’ यानि MMYIC की । तक़रीबन 23 पहले जब ये विद्यालय स्थापित हुआ तो एक बड़ी समस्या ये थी कि घोर अशिक्षित और महुआ शराब-ग्रस्त इस इलाक़े में माँ-बाप को, शिक्षा प्रति, कैसे प्रेरित किया जाए ? ख़ासतौर पर कन्या शिक्षा के मामले में ! आदिवासियों को कन्या सुरक्षा का एहसास दिलाना एक दुष्कर कार्य था । बहुत ही चुनौतीपूर्ण स्थितियां थीं । नामुकिन जैसी । लेकिन शुरुआत हो गयी । अब एक्का-दुक्का छात्र-छात्राएं आना शुरू भी हुए तो समस्या ये खड़ी हुई कि ज़रूरी डिग्रीधारी पढ़ाए कौन ? ऐसे में कुछ स्वयंसेवी लोग सामने आए । क्लासेस शुरू हुई और क़रीब 2000 तक ऐसी ही निराशाजनक स्थिति बनी रही । लेकिन इसका संचालन वाराणसी स्थित स्वयंसेवी संस्था ‘अघोराचार्य बाबा कीनाराम अघोर शोध एवं सेवा संस्थान’ (ABKASESS) के बैनर तले आने के बाद इसकी दशा-दिशा में सुधार होना शुरू हो गया । इस कॉलेज के प्रति बेहद गंभीर व्यवस्थापक व् इलाक़े के सम्मानित सज्जन श्री के.डी. जायसवाल की मेहनत और समर्पण काम आने लगा । विद्यालय में छाई निराशा फ़ीकी पड़ने लगी । जायसवाल के साथ सन 2008 से यहां के अवैतनिक सहयोगी व् व्यवस्थापक शेषनाथ तिवारी इस स्कूल के सफ़र में कई उतार-चढ़ाव देख चुके हैं। शेषनाथ कहते हैं कि …. ” यू.पी. बोर्ड से मान्यता प्राप्त इस कॉलेज में, आज , क़रीब 750 बच्चे हैं , मग़र एक वक़्त ऐसा भी था कि लगा कि कॉलेज बंद हो जाएगा …. हर तरफ़ से निराशा थी । लेकिन संस्था के अध्यक्ष व् प्रेरणास्त्रोत अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी के आदेश व् साहस से हम लोगों ने बेहद कठिन दौर में भी अपना प्रयास जारी रखा और आज परिणाम ये है कि कभी-कभी इस स्कूल में ऐडमिशन मिलना भी कठिन हो जाता है “।
इस स्कूल की प्रासंगिकता व् शिक्षा पद्धति का ज़िक़्र करते हुए श्री जायसवाल संग शेषनाथ तिवारी और उनके सहयोगी अशोक कुमार पप्पू दावा करते हैं कि “इस स्कूल में शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक चेतना का भी उदय हुआ है” । इनके मुताबिक़ ” यहां पढ़ने वाले बच्चे सिर्फ़ अनुशासन और शिक्षा तक ही सीमित नहीं हैं , बल्कि इन बच्चों ने अपने घर में अपने माता-पिता की सोच में भी बदलाव किया है । महुआ की शराब को प्रतिदिन का हिस्सा मानने वाले कई मां-बाप शराब छोड़ चुके हैं “। क़रीब 15 टीचर्स के बलबूते होता यहां का शैक्षणिक-प्रसार किसी व्यवसायिक मानसिकता का बँधुआ नहीं है । यहां पढ़ाने वाले (M.A, B.Ed) शिक्षक किसी मोटी तनख़्वाह के वशीभूत शिक्षा नहीं देते , बल्कि नाम-मात्र की मानदेय राशि को ही सम्बल मानकर इस नेक मिशन में अपना अभूतपूर्व योगदान कर रहे हैं ।
कॉलेज के व्यस्थापन से जुड़े शेषनाथ तिवारी, के.डी.जायसवाल व् अशोक कुमार ‘पप्पू’
शिक्षा , समाजिक चेतना के अलावा इन बच्चों को खेल व् अन्य प्रतियोगिताओं के ज़रिये भी प्रेरित किया जाता है ताकि तेज़ी से होते आधुनिक समाज और उच्च शिक्षा की दौड़ में, ये बच्चे ,हीन भावना का शिकार न हों । ये कॉलेज कई मायनों में अहम् माना जा सकता है । यहां पढ़ने वाले 95% बच्चे आदिवासी हैं । यहां पढ़ने वाले बच्चे बेहद ग़रीब घरों के हैं । यहां पढ़ने वाले बच्चे बेहद विपन्नता का जीवन जीते हुए भी, शिक्षा और सामाजिक चेतना के प्रति, जागरूक हैं । निःसंदेह यहां की व्यवस्था और उससे जुड़े व्यवस्थापकों व् अध्यापकों की निष्ठा संदेह से परे है । इसकी गवाही देता है यहां के स्कूल का रिज़ल्ट । तिवारी बताते हैं कि …. “अभाव होने का असर हमारे स्कूल के परिक्षा-परिणामों पर व्यापक असर नहीं डालता । हमारे यहां 12 वीं का रिज़ल्ट 87% और 10 वीं का 82% तक होता है ” । आदित्य बिड़ला ग्रुप के ग्रासिम बैनर के सहयोग की प्रशंसा करते हुए तिवारी कहते हैं कि …. “स्थानीय ग्रासिम बैनर अक्सर हमारे सहयोग के लिए आगे आता है । हमारी ईमानदारी-निष्ठा व् शिक्षा के विस्तार के प्रति लगन को देखते हुए इस बैनर ने कई बार हमें अविस्मरणीय सहयोग दिया है, जिसके चलते हम उनका धन्यवाद देते हैं ” ।
अपने टीचर्स और सहयोगियों संग हौसलों के साथ खड़े श्री के.डी.जायसवाल, शेषनाथ तिवारी और अशोक कुमार पप्पू उम्मीद जताते हैं कि …. ” संस्था के अध्यक्ष व् प्रेरणास्त्रोत अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी की असीम कृपा से हम मेहनत कर रहे हैं और आदिवासी इलाकों में शुमार इस स्थान की की तस्वीर बदलने की कोशिश कर रहे हैं । हमारी कोशिश एक बदलाव लाने की है । शिक्षा के साहस के बूते हम बदलाव लाने में इस क़दर क़ामयाब रहे हैं कि हमारे यहां के बच्चे-बच्चियां (छात्र-छात्राएं) अपने घरों में कम-उम्र-में-विवाह की मानसिकता को झकझोर रहे हैं , बदल भी रहे हैं । कई बच्चे-बच्चियां तकनीकी शिक्षा और स्नातक तक की पढ़ाई के प्रति गंभीर हुए हैं । ”
इसमें कोई दो-राय नहीं कि सहूलियत की अपनी सुविधा होती है । सम्पन्नता का अपना प्रभाव होता है । सहूलियत के कंधे पर चढ़ कर आयी सुविधा की सम्पन्नता अपना व्यापक असर डालती है । जीवन के हर कोने में । मग़र ये भी सच है कि सहूलियत-सुविधा-सम्पन्नता की सफ़लता, जज़्बे और जज़्बात पर निर्भर करती है । इसकी गवाही देते हैं वो सैकड़ों सरकारी स्कूल जहां टीचर्स लाख रुपये बतौर तनख़्वाह पाते हैं लेकिन पैसे वाले लोग अपने बच्चों का ऐडमिशन इन लाखों पाने वाले टीचर्स के सरकारी स्कुलों में न कराकर प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं । क्योंकि सरकारी स्कूलों में टीचर्स की तनख़्वाह और सुविधा के नाम पर सरकारी पैसा तो ख़ूब आता है मग़र लोगों में वो भरोसा नहीं आता जो सोनभद्र जिले के म्योरपुर के जंगलों से सटे आदिवासी इलाके के अभावग्रस्त मग़र बुलंद हौसलों से लबालब इन बच्चों को देखकर आता है । सलाम है ।
नीरज वर्मा
सम्पादक
www.iswaqt.com
सच मे ऐसे महान विचारधारा के अध्यापक बिरले ही होंगे। इन महान व्यक्तित्व , महान गुरुजनों को प्रणाम🙏🙏 । आज से बहुत साल पहले ही बाबा कीनाराम ने आदिवासी बच्चियी के लिए स्कूल खोलकर बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ अभियान की नींव रख दी थी ।🙏🙏महादेव !बाबा कीनाराम की जय🙏🙏🌷🌷
ज्योति जी , आपके विचारों से पूर्ण सहमत हूँ । मग़र तस्वीर का निराशाजनक पहलू ये है कि ज़्यादातर लोग व्हॉट्सएप और फेसबुक पर बैठकर सिर्फ़ मैसेज़ फ़ॉरवर्ड करते हैं । ख़ुद कोई योगदान नहीं देते ।
यह सत्य हैं कि विद्यालय संचालन में बहुत दिक्कत हुई
पर अब कुछ अच्छा हैं
सत्य हैं कि विद्यालय संचालन में बहुत दिक्कत हुई
पर अब सब कुछ अच्छा हैं