जीवन को बहुत उम्दा तरीक़े से तो , अब तक, नहीं समझ पाया हूँ पर कोशिश जारी है ! कई तरीक़ों से इस मनुष्य जीवन को समझने की गुंज़ाइश पैदा कर रहा हूँ ! पूरा समझ पाउँगा कि नहीं, फ़िलहाल कह नहीं सकता ! पिछले कई दिनों से भ्रमण करते-करते , अचानक एक जिज्ञासा जगी कि मैं कौन हूँ ? मेरे मनुष्य होने का मतलब क्या है ? मैं इस संसार में क्या करने आया हूँ ? मनुष्य जीवन का अध्यात्म से क्या ताल्लुक़ है ? ऐसे बहुत सारे सवाल ज़ेहन में कौंधने लगे तो मन में आया कि अपने जिज्ञासू मन में-अंतर्मन में कहीं से-किसी भी कोने से, एक बूँद अध्यात्म की अपने जीवन के अन्दर , रस-स्वरुप में, डाल सकूं, जिससे मेरे अन्दर का जो मनुष्य-बीज है और बीज के तहत उपजी जो शिक्षाएं हैं वह इस संसार के योग्य बन सकें–राष्ट्र के योग्य बन सके ! इस मानव-तन की सार्थकता हो सके ! “अध्यात्म की एक बूँद” मुझे साधू बनने के लिए प्रेरित नहीं करती ! हाँ, मनुष्य बनने की दिशा में धक्का ज़रूर लगाती है ! ये धक्का समाज-राष्ट्र-संसार में मनुष्य की प्रमाणिकता साबित करने के लिए सार्थक जान पड़ा !
कोशिश कर रहा हूँ कि सारे भ्रमण-सारे अनुभव, उस मार्ग पर ,मुझे ले जा सकें, जिस मार्ग के लिए ये जीवन तय होत्ता है ! इस जीवन का उद्देश्य क्या है ! मैं उस अध्यात्म के माध्यम से जान सकूं कि मेरे जीवन क्या और किसलिए है ? मैं उस आध्यात्म के माध्यम से जान सकूं कि मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ? अनवरत , मैं, इसी पर चलता रहने की जुगाड़ में हूँ ! चलते-चलते, कभी-काभी बहुत बोझिल और निराश हो जाता हूँ ! मगर न जाने कौन सी ज़िद्द, ये मन, पकड़ कर बैठ गया है ? अनेक प्रतिकूल परिस्थितियाँ आज जाती हैं ! सोच में पड़ जाता हूँ ! पर दिमाग में, तुरंत, ये ख़याल आता है कि हर स्थिति को ईश्वर आपके सम्मुख रखता है ! यही सोचकर साहस बढ़ाता हूँ कि स्थिति से बाहर निकल जाना ही उस “खोज” की अंतिम मंज़िल है ! और….स्थितियों से जब आप बाहर निकलते हैं तो लगता है कि स्थितियां आपको कभी अपना दास नहीं बना सकती ! क्योंकि अमूमन देखा गया है कि लोग परिस्थितियों के दास बन जाते हैं ! उन स्थितियों से बाहर आने के लिए आध्यात्म की एक बूँद बहुत ज़रूरी है, मनुष्य जीवन के लिए ! ऐसा मैने पाया है- खोजा है-जाना है ! ईश्वर को जानना या उसके नज़दीक जाना महत्वपूर्ण नहीं है ! अहम् ये है कि इस संसार में ईश्वर ने आपको मनुष्य क्यों बनाया ? संसार में मनुष्य आता है और जाता है ! आना-जाना तो लगा रहता है , इस संसार में सभी जीवों का ! ये ईश्वर की प्रक्रिया है ! जो आया है- उसका जाना निश्चित है ! मैं इस आने-जाने की गहराई में जाना उचित नहीं समझता पार इतना ज़रूर सोचता हूँ कि अगर जाना अनिवार्य है तो रहना भी आना चाहिए ! रहनी आना बहुत ज़रूरी है ! यानि मानव जीवन में आने के साथ-साथ रहने का मतलब क्या है ! ताकि जीवन सार्थक हो सके ! इसलिए मनुष्य को अपने जीवन को समझने के लिए थोडा वक़्त देना चाहिए !
अगर ईश्वर-परमात्मा ने मुझे मनुष्य रूप में इस धरा पर भेजा है, तो, मनुष्य होने का मुझे एहसास होना चाहिए ! सिर्फ़ एहसास भर नहीं बल्कि मनुष्य और जानवर की रहनी में भेद करना भी आना चाहिए ! मनुष्य-जीवन से जुड़े उन कर्तव्यों का भान भी होना चाहिए जिनका मैं सुचारू रूप से इसका पालन कर सकूं और इस मनुष्य जीवन को समाज के लिए-राष्ट्र के लिए (अपनी बुद्धि-विवेक के अनुसार) सही तरीक़े से उन सभी के लिए अर्पित कर सकूं जो इस प्रकृति द्वारा निर्मित हैं ! इस सफ़र में मर्यादा का भी, हमेशा, अपने अन्दर दृष्टिपात करना चाहिए ! हर मनुष्य को मनुष्य-जीवन की सार्थकता से जुड़े प्रश्नों का अध्ययन करना चाहिए, इसके प्रति जिज्ञासू होना चाहिए ! जब अपने अन्दर ये भाव लायेंगें तो स्वयं , वो, परमात्मा आपके सवालों का जवाब देने में ज़्यादा-देर नहीं करेगा ! इसलिए सर्वप्रथम मनुष्य बनने की प्रक्रिया पर आप आगे बढ़ें ! मैं कौन हूँ ? ये बहुत अहम् है ! पर इसके साथ “मैं” का भाव कदापि नहीं होना चाहिए ! ये “मैं” ही अहंकार है ! दंभ है, जो, ख़ुद को जानने से खुद को दूर रखता है ! इसलिए “मैं” तो कत्तई नहीं ! इस “मैं” को हटाने के लिए खोज करें , उस मनुष्य की जो “कौन” था , “कौन” है ? जब तक अहंकार है, वो “मैं” है, तब तक….आप, अपने द्वारा सम्पादित कार्यों को “मैं” के दायरे तक ही सीमित रखेंगें ! और जब “मैं” है तो वो नहीं और “वो” है तो “मैं” नहीं ! बींसवीं सदी के महान संत अघोरेश्वर महाप्रभु भगवान् राम जी ने भी कहा है, कि , “ई त ऊ ना – ऊ त ई ना” ! इसलिए किसी एक को निकालना पडेगा ! “अध्यात्म की एक बूँद” का रहस्य भी संभवतः कुछ ऐसा ही है ! इस सफ़र में अभी अनंत शेष—-फ़िर कभी….!
पंडित दुर्गेश शुक्ला
वाराणसी
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