परम् पूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी एक शब्द का प्राय: प्रयोग करते थे- ” कणिका, कणिका”…इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य मनन-चिन्तन शक्ति द्वारा जब वह अपने ही अंदर प्रवेश करता है तो वह सुक्ष्म से सुक्ष्म रूप में उस परा-शक्ति का आभास पा लेता है। विज्ञान के नज़रिये से भी देखें तो भौतिक शास्त्र में भी किसी भी पदार्थ के सुक्ष्म से सुक्ष्म रूप को अणु तथा परमाणु के रूप में जाना गया है। वस्तु के उस सुक्ष्म रूप को अणु कहा गया है जिसमें अणु मूल वस्तु के गुण को दर्शाता है और इससे एक क़दम आगे बढ़कर, परमाणु , अणु को भी सुक्ष्म में दर्शाता है। उस स्थिति में ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं के समान परमाणु अपने स्वधर्म को तिरोहित कर एक गुणधर्म विहीन सुक्ष्म रूप का आभास कराता है।
पराशक्ति शाश्वत रूप में सदा विराजित है जो समय तथा अंतरिक्ष से परे है। इनमें वह पराप्रकृति कभी बाधित नहीं होती है बल्कि समग्र भौतिक सृष्टि उस पराप्रकृति में ही प्रतिबिम्ब के रूप में रहती है। भौतिक सृष्टि के हर कण में सदा वह परमशक्ति अभास दे रही है, तरंग वितरित कर रही है। पराप्रकृति के ही एक साथ दो रूप है शिव एवं शक्ति । दोनों रूप की अनुभूति जिस साधक में एक साथ होती है और वह उसी शक्ति के अनुरूप आचरण करता है।
शक्ति साधक तथा शिव साधक वास्तव में एक ही हैं। बिना शक्ति के शिव, शव बन जाता है । बिना शिव के शक्ति विवेकहीन-विध्वंसकारी हो जाती है, जो समाज एवं व्यक्ति के लिए ख़तरनाक़ होता है।
परमशिव हों अथवा सदाशिव हों…. उसी को परमतत्त्व के रूप में शैव साधकों ने जाना है। तंत्र में इस बात का भी उल्लेख है कि परमशिव में जब पहली तरंग उठती है यही विमर्श-….शक्ति क्रिया शक्ति के रूप में अभिव्यक्त होकर सृजन करती है।
परमपूज्य गुरूदेव
अघोरेश्वर भगवान राम जी की अमृत वाणी याद आई है-
शिव नाम के कोई देवता है ही नहीं।
शिव के गुणधर्म से ही शिव की कल्पना की गयी है। शिव का जो वर्णन शास्त्रो में मिलता है उसमें उन्हें कल्याणकारी, स्वार्थविहीन, दूसरों के लिये जीना, समाज के व्यापक हित की रक्षा करना आदि गुणों से लैस बताया जाता है। समाज के जो सजन्न लोग होते हैं उनमें उपर्युक्त सभी गुणों का समावेश होता है, वो, शिव-स्वरुप हो जाते हैं । समाज उसी व्यक्ति की पूजा शिव के रूप में करता है। शिव के गुण धर्म हमेशा कल्याणकारी भावनाओं की ओर अग्रसर होते हैं। ऐसे में साधक जब, शिवत्व की प्रेरणा से अभिभूत हो, सच्ची साधना साधना के रास्ते पर अग्रसर होता है, तो वह स्वत: अन्तर्मुखी हो जाता है।
प्रस्तुति
औघड़ बाबा राजेश राम जी
Leave a Reply